तीसरा परिच्छेद अपने उत्साह, उत्कंठा और उद्वेग को छिपा नहीं सकता था। सरला उसे प्यार तो करती थी, उसकी दया ओर आदर की दृष्टि भी कम नहीं थी, पर उसका मन उसकी ओर खिंचता न था । उसके मन से उसके मन का रासायनिक मिश्रण न होता था। उसे ऐसा मालूम होता था कि हम दोनों आपस में एक दूसरे को देख तो रहे हैं, पर मैं उस युवक से बहुत ही दूर, एक दूसरे ही संसार में, खड़ी हूँ। वहाँ न कामना है, न अतृप्ति और न उत्कंठा। युवक जो कहता, सरला प्रसन्नता से वही करतो । युवक कहता-"सरला, बाबा कहते हैं, तुम कहीं जंगल में अकेली भटकती फिरती हो, और उस समाधि में उन पुरानी किताबों को पढ़ती रहती हो ; मुझे भी तो उन जगहों को दिखाओ।" यह सुनकर सरला तैयार तो उसी दम हो जाती, पर युवक के समान उत्साह, उमंग-तरंग या उत्कंठा उसे कुछ भी न होती। युवक उसके इस भाव को कभी तो सरलता, कभी शालीनता और कभी अनुराग समझता। पर बात क्या थी, सो भगवान् ही जाने । युवक का शिक्षा-काल समाप्त हो गया। युनिवर्सिटी को डिग्री तो उसने प्राप्त कर ली, पर जितना उसका मन खेती-बारी के काम में लगता था, उतना नौकरी-चाकरी में नहीं। पढ़कर भी उसने वही खेती करना पसंद किया ; उसी में उसको सुख मिला । सरला भव आठो पहर उसके साथ रहने लगो; पर घनिष्ठता ज्यों-ज्यों बढ़ने लगी, त्यों-त्यों युवा निराश-सा होने
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