पृष्ठ:हृदय की परख.djvu/३२

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चौथा परिच्छेद

वसंत का मनोरम काल है। सूर्य निकल तो आया है,किंतु अभी बहुत ऊँचा नहीं उठा है । उसकी सुनहरी किरणें अभी समीप के ऊँचे पर्वतों पर पड़ रही हैं। सरला चुपचाप अपनी अटारी पर बैठी उस पर्वत-श्रृंग के निकट उड़ते हुए पक्षियां को स्थिर नेत्रों से देख रही है । कभी-कभी सामने के झरने पर जाकर उनकी दृष्टि रुक जाती है। कैसी-कैसी भावनाएँ, कैसी-कैसी कल्पनाओं की तरंगें उसके हृदय में उठ रही है । इतने ही में पीछे से किसी के आने का आट सुनकर सरला पीछे को मुड़ी, देखा, तो सत्य आ रहा है । उसे देखते ही साला खड़ी होकर बोली--"आओ सत्य ! क्या गाएँ

दुह ली ?"

"हाँ |"

"और भेड़ें।"

"वह देखो, जंगल को जा रही हैं।"

"और शिशु कहाँ है ?"

सत्य ने हँसकर कहा-"शिशु बड़ा ही बदमाश है। यह देखो, उसने मेरा सारा कुरता चबा डाला । मैं बैठा-बैठा गाएँ दुह रहा था, पीछे से आकर वह चबाने लगा,और जब मैंने