उस विलासी को भी प्रिय नहीं है । मोरी में पड़ा सड़ रहा है । पंखड़ियों को कीड़े खा रहे हैं। यह सब चाहना के साथ स्वार्थ का संयोग करने का फल है। तुम्हीं बताओ सत्य, क्या वे हाथ प्यार करने के योग्य हो सकते हैं, जो ऐसा कठोर व्यवहार कर सकते हैं, जिन्हें ऐसे सौंदर्य को छिन्न-भिन्न करने का साहस हो सकता है ? वे चाहक नहीं हैं, चाहना का फल उन्हें नहीं मिल सकता।" इतना कहकर सरला चुप हो गई । इस बार उसने जो युवक के मुख को देखा, तो उस पर अब उत्साह नहीं था। आँखें निष्प्रभ हो रही थीं, पर मुख पर शांति. श्री का प्रभाव नहीं था । भर्राई हुई आवाज से उसने कहा- "पर जो वस्तु जहाँ के योग्य है. उसे वहाँ न स्थापित करना भी तो अन्याय है।"
सरला ने अत्यंत नम्रता से कहा-"नहीं सत्य ! भूल करते हो। हमारा निर्वाचन उस संसार के स्वामी से कदापि अच्छा नहीं हो सकता । कहाँ कौन वस्तु अच्छी लगती है, इसका ज्ञान तो हम धीरे-धीरे उसी के संकेत से लाभ करते हैं। इसके सिवा जब हमारी स्वार्थ-साधना प्रबल हो जाती है, तब हमें कौन वस्तु कहाँ अच्छी लगेगी, इस पर विचार ही कब करते हैं ? हम चाहे जैसे अपम हों. उत्तम से उत्तम वस्तु को अपनाना हो चाहते हैं, मनुष्य का स्वभाव ही कुछ ऐसा है।"
युवक ने कुछ लजित होकर कहा-"तो कौन किसके योग्य है, इसका भी तो कुछ निश्चय होना चाहिए।"