"कुछ भी नहीं, केवल स्वार्थ-त्याग हो, स्वत्व का हा्स हो, तो अधम-से-अधम भी महान्-से-महान् का चाहक बन सकता है। उसमें कोई अवहेलना नहीं है, कोई असमता भी नहीं है । भौंरे से कमल की क्या समता है ? शबरी से राम की क्या समना है ?" युवक की गर्दन झुक गई । लाज से उसका मुख लाल हो गया । उसने देखा-सचमुच मुझ-सा अधम कोई न होगा। ऐसी पवित्रता को मूर्ति को, ऐसे देवोपहार योग्य कुसुम को मैं अपनी लीलावती विलास की सामग्री बनाना चाहता हूँ ? छिः ! छिः ! युवक उठ खड़ा हुआ । उसके उव्देग -पूर्ण नेत्रों को देवकर सरला ने कहा-"ऐसा क्यों ? बैठो, ऐसो अस्थिरता क्यों ? तुम तो-"
बात काटकर युवक ने कहा- 'महामहिमामयी, तुम्हें प्रणाम करने को जी चाहता है। मैं नरक का कीड़ा तुम्हारे आँचल के स्पर्श के भी योग्य नहीं हूँ।"
सरला ने उसका हाथ पकड़कर जल्दी से कहा-"छिः ! फिर आत्मप्रतारणा ! मैं क्या तुम्हारे पूजा के योग्य हूँ ? देखो, मेरे पास जो कुछ है, तुम न ले सकते हो. और न मैं दे सकती हूँ । पर देखो पानी के बुलबलों की-"
सत्य ने बात काटकर कहा- "मुझे और कुछ न चाहिए । तुमने आज जो कुछ दिया है, वही बहुत है। अच्छा, मैं आजन्म इसी व्रत का पालन करूँगा। पर क्या प्रभु हमारी आत्मा को दृढ़ बनावेंगे?"