पृष्ठ:हृदय की परख.djvu/४१

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चौथा परिच्छेद

"अवश्य । सामने के झरने को ही देखो, वह कैसी निर्भीकता और स्थिरता से बह रहा है । इस इतने ही काल में हमारे कितने विचार परिवर्तित हो गए, पर वह पूर्ववत् ही है । ऐसा ही आत्मविश्वास हममें होना चाहिए।"

"भगवान् ऐसा ही करें।" अत्यंत कातरता से युवक ने कहा-"ठीक है, आज से यही हमारा दीक्षा-गुरु हुआ। आओ, हम भक्ति-पूर्वक इसे प्रणाम करें।" यह कहकर सरला घुटने के बल बैठ गई, और उसका चाँदी के समान स्वच्छ मस्तक उस हरी-हरी घास पर झुक गया । सत्यव्रत ने भी मंत्र मुग्ध की तरह सरला का अनुकरण किया । सूरज अब बहुत ऊँचा चढ़ आया था, और धूप फैल गई थी।