सातवाँ परिच्छेद
शारदादेवी की अवस्था ५० वर्ष के लगभग होगी। सरला ने अभी ग्रामों के प्राकृतिक दृश्य देखे थे। उसी मूक और कठोर सौंदर्य पर वह मुग्ध थी; पर शारदा को देखकर सरला भौचक-सी रह गई। शारदा की आयु अधिक तो अवश्य थी, पर उनके मुख पर जो तेज, जो छवि, जो लावण्य था, उससे घर-भर दिप रहा था। गोसाई तुलसीदास कह गए हैं-"नारि न मोह नारि के रूपा।" पर सरला सचमुच मोहित हो गई थी। कुछ सरला ही नहीं, वह देवी भी अन-जान सरला को देखकर न जाने किस कारण अपने हृदय में ऐसा अनुभव करने लगी, मानो इसकी ओर प्राण खिंच रहे हैं। वे व्याकुल हुए जाते हैं । रहा नहीं जाता। जैसे जंगल से आती हुई गाय बछड़े को तरफ़ रस्सा तोड़कर दौड़ती है,वैसे ही उन देवी की आत्मा सरला की ओर खिंचने लगी। उन्होंने सरला से पूछना चाहा-सुभगे! तुम कौन हो? और कहाँ से इन नेत्रों को तृप्त करने आई हो? आओ, तुम्हारा स्वागत है। पहले मेरी गोद में बैठो। और उधर सरला के मन में भावना उठ रही थी-यही उन सज्जन की श्रीमती भगिनी हैं। इन्हें प्रणाम करना चाहिए। किंतु न उनसे