पृष्ठ:हृदय की परख.djvu/५७

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सातवाँ परिच्छेद

नहीं रहा जाता।" इतना कहकर उन्होंने सरला का आँचल पकड़कर कहा-"बैठ जाओ, तुम कौन हो, कहो तो?"

बीच ही में सुंदर बाबू बोल उठे । उन्होंने कहा-"देखो बहन ! रेल में इन्हें देखकर मेरे हृदय में भी यही भाव उदय हुआ था, मानो यह अपनी ही हैं। मैं तो अपना मन न रोक सका। मेरे मन में आया, हठात् इन्हें घर ले चलू । पीछे जब इनसे बातचीत हुई, तो यह देवी अनुग्रह-पूर्वक तैयार हो गई। हमारे भाग खुल गए प्रतीत होते हैं। एक क्षण में ही देखो घर कैसा हो गया!"

शारदा अभी सरला को एकटक देख रही थीं। उन्होंने कहा-"मेरा मन जी उठा । ऐसा सुख जीवन में मुद्दत से नहीं मिला। यह देवी हैं कौन ? क्यों देवी ! तुम कौन हो ?" सरला भी एक अनोखे भाव में आप्लावित हो रही थी । पराए घर में एकदम इतना स्वागत ! उसने कहा-"कौन हूँ, इसको? आपके सम्मुख कुछ बनने को जी नहीं चाहता। आप जो बनावेंगी, वही बन जाऊँगी।"

सरला की वाणी, उसका भाव, उसका मस्तिष्क, उसका हृदय एक साथ शारदा को भा गया । उनसे कुछ कहा भी न गया, देखती ही रह गई। कुछ लज्जित-सी होकर सरला ने कहा-"आपको क्या मेरे वचन पर प्रतीति नहीं होती ? स्नेहमयी देवी! आपका स्नेह-कवच मिल जाय, तो आपकी सेविका बनने में सौभाग्य ही है।"