पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/१०५

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अध्याय ७ वाँ] ७३ [गुप्त सगठन लाचार, अवलबितं था, वह पेशवाकी राजमुद्रा बिठूरके राजभवन में स्वयं ही विधवा होकर संदूक बंद पड़ी थी। किन्तु अब कुछ और ही रंग दीख पड़ता था। कोने में धूल चाटते पडा 'जरीपटका' नवचेतनासे फिर लहराने लगा। पुराने समरगीतोंको लगभग भुलानेवाले मारू बाजे फिर अपने रण-संगीतसे ब्रह्मावर्तका वातावरण भरने लगे और पेशवाकी राज: मुद्रा पराधीनताके शापको नष्ट करने के लिए उतावली हो उठी। नानासाहब की वे " व्याघ्रके समान भेदक और तेजस्वी" आखे आत्माभिमानपर आघात होते ही, अजीमुल्लाके आगमनके बाद, और ही चमकीली और बडी हो गयीं। फिर एक बार भगवान् श्रीकृष्णके 'तस्मात् युद्धाय युज्यस्व' वीरसदेशने नानासाहबका अंतःकरण नयी प्रेरणासे भर गया। बिठूरके कोने कोनेमें यही मंत्र गूंज उठा, " तस्मात् युद्धाय युज्यस्व-सो; उठो, लडनेको सिद्ध हो जाओ!" क्यों कि, अपने ही देशमें-हिंदुस्थानमे ही-विदेशी शासनकी गुलामीकी बेडियोंमे जकडे पडे रहनेका लोगोके भाग्यमे बदा था! स्वराज्य ही समाप्त हुआ तब स्वातंत्र्यका जन्मसिद्ध अधिकार भी लोप हो गया। स्वदेश और स्वाधीनताको फिरसे प्राप्त करनेके साम-दाम-भेद आदि सभी उपाय पस्त हो गये थे। इस प्रश्नका सुलझाव एक ही रहा-'युद्ध'। “हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्ग, जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्-समरमें मारे जाओगे तो स्वर्गका सुख पाओगे; युद्ध में जीत होगी तो इस कर्मलोकका राज करोगे" गीता का संदेश गूंज उठा " इस लिए, उठो; युद्ध करनेमें तुम किसी प्रकारका पाप नहीं करते।" इस दिव्यमंत्रसे नानासाहबकी ऑखें और भी चमक उठी (स. ९) नानासाहबने देश की स्थिति की पहले पूरी जॉच की। अपने देशबाधवों की गरीबी हालत तथा शोषण और तिसपर भी उनके धर्मपर .* (स. ९) उस समय, नानाका मन्तव्य था, कानपुर में अपने राज की नींव डालना; पेशवा की महान शक्तिको फिरसे पहले के स्थान पर बिठाना; और अपने भाग्य का विधाता बनकर उस अलोप राजदण्ड के वैभव को फिरसे अपने हाथों बढाना | बसे, इसी तरह के कोई विचार उसे उत्तेजित कर रहे थे। टेव्हेलियन पु-१३३