पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/१६६

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१३० प्रस्फोट] द्वितीय खड बचानेकी चेष्टा नहीं करता था। सचमुच, भारतीय लोग सटाही ऐसे उदासीन रहते तो, जैसा कि के साहब बता रहे है, अंग्रेजोंकी राजसत्ता एकही दिनमे मिट्टीमे मिल जाती। किन्तु वह भाग्यशाली दिन १८५७ के वर्षमें उदय नहीं हुआ। यह कहना चाहिये कि सत्तावन साल तो रातकी घोर निद्राके बाद आई हुई नये जागरणकी ऊषा थी। आगामी उज्ज्वल उजेलेकी स्पष्ट कल्पना जो पहलेही कर सके थे, वे अपनी गव्या छोडकर जागरित हो उठे थे; किन्तु जो अब भी मानते थे कि रात समाप्त नहीं हुई, उन्होने पराधीनताका ओढना फिरसे मुंहपर तानकर बेखबर सोना ही उचित माना । इन निद्रालु वीरोंमे, कुभकर्णके कान काटनेकी स्पर्धा पटियाला, नाभा, तथा जींद इन तीन रियासतोमे लग गयी थी। क्रातिको अमर करना या उसे मारना, दोनो बातें इन रियासतोंके अधीन थीं। ये सस्थान दिल्ली और अम्बालेके बीच के टापूमे होनेसे, बिना उनकी सहायताके अग्रेजोंका पीछा अरक्षित रह जाता। ये सस्थान यदि अन्योंके समान उदासीन भी रहते तो भी कातिकी यशस्विताकी बहुत सम्भावना थी। किन्तु, उलटे, पटियाला, नाभा तथा जींद रियासतोंने अंग्रेजोंसे बढकर क्रूर तथा निठुर चोटे क्रातिकार्यपर करना शुरू किया, तब तो दिल्ली और पजायका सबध खण्डित हुआ । इन सस्थानोने दिल्ली सम्राटके निमत्रणको ठुकरा कर सदेशवाही सवारोका सफाया कर दिया, तथा अपने कोषोंसे पैसा निकालकर अंग्रेजोंपर निछावर कर दिया, उनके लिए रंगरूट भरती किये और अंग्रेजी सेना जिन प्रदेशोसे गुजरनेवाली थी उनकी रक्षा कर , अग्रेजोके साथ दिल्लीपर चढाई करनेका साहस किया । और जो जातिकारी अपने घरबारपर अगार रखकर दिल्ली के राष्ट्रीय ध्वजकी रक्षाके हेतु जान पर खेल गये उन कातिवीरोको, गुरु गोविदसिगके सिक्ख कहलानेवाले इन सस्थानोने, यत्रणा देकर मारा।। __पटियाला, नाभा और जींद इन तीन रियासतोंसे पूरी सहायता मिलनेका विश्वास होनेयर अंग्रेजोकी हिम्मत बढ़ गयी। पटियालाके राजाने सैनिकदल तथा तोफखाना अपने भाई के साथ भेजकर उसे थानेसर मार्गकी रक्षाका

  • के कृत इडियन म्यूटिनी खण्ड २