पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/१७८

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प्रस्फोट] १४२ [द्वितीय खड है सभी इकाइयोको अपने में समानेवाली भारत की राष्ट्रीय एकताकी गगा ससार के सभी बडे और सगठित राष्ट्र, ऐसी एकता के पहले,-वा यो कहिए कि उसी एकता के लिए, गडबड, मतभेद तथा आपसी वैरभाववीच की इन अनिवार्य अवस्थाओं से गुजरे हुए है । जब इटली, जर्मनी और, इग्लैंड क्रमसे रोमनी, सॅक्सनो और नॉर्मनों के अधिकार में थे तत्र वहाँ कितने आपसी झगडे थे इसपर ध्यान दिया जाय तथा उन राष्ट्रोके वशो, धर्मों तथा प्रातोके बीच चलनेवाली घोर भत्रुता को देखा जाय तथा आपसी प्रतिशोधमें होनेवाली राक्षसी यत्रणाओं पर गौर किया जाय तो इनके सामने भारत की फूट तो एक छिछोरी बात मालम होती है। उपर्युक्तः देशोंने उनमे रहनेवाले भिन्न भिन्न लोगो की एकता आपसी झगडो की भट्टीम तथा अत्याचारी विदेशी शासन की आगम गला कर, अब अटूट बना डाली और वे शक्तिशाली राष्ट्र बन गये है इस वास्तविकतासे कोन इनकार कर सकता है ? • इसी ऐतिहासिक विकास प्रक्रियासे भारतभूमिमे भी. यहाँ बसनेवाले भिन्न मानव वश तथा वर्ण एक सॉम ढलकर एक-राष्ट्रीयत्वका उदय हो रहा था। अग्रेजी पराधीनताकी घटीमे उत्तर भारतीय जनताकी आपसी फूट चकनाचूर हो गयी, और उसीसे अत्याचारी शासनको उखाड फेकनेको उसमें प्रेरणा हुई । किन्तु उस.समय इस राजकीय दासताका रूप तथा उसका घोर परिणाम पूरीतरह जॅच जानेके लिए दस वर्षोका समय भी पर्याप्त न हुआ | और इसीसे सिक्ख तथा जाट उम महान् राष्ट्रीय बनावकी प्रक्रियाको समझ न सके, जिससे सयुक्त भारतीय राष्ट्रके निर्माणमे उन्होंने कुछ भी भाग न लिया।* _* (स.२६) सर जॉन लॉरेन्स २१ अक्तूबर १८५७ के एक पत्र में लिखता है:-" सिक्ख यदि हमारे विरुद्ध क्रातिकारियोसे मिल जाते तो हमें बचाना मानवी पहुँचके बाहरकी बात होती। किसीको आशाही न थी, कोई इसे भॉप नहीं सकता था, कि अपनी गॅवायी हुई राष्ट्रीय स्वाधीनताको हडपनेवालोंका प्रतिशोध लेनेके मौकसे लाभ न उठाया जायगा, ये लोग इस लोभको सवरण करेंगे।"