पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/२२२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

प्रस्फोट १८४ [द्वितीय खंड हे भयाकुल नेत्रो। इधर, अब, जान्हवी और कालिदीके प्रीति-सगमकी प्रेम लहरोंकी ओर देखो ! प्रयाग नगरी त्रिवेणी-संगमके सुशांत, सुभव्य सलिलसे सुल्नात होती है। त्रिवेणीका पुण्यपावन तीर्थक्षेत्र तथा अकबरके समयमें बना वहॉका दुर्ग प्रयागकी शोभा औरही बढाते है । कलकत्तेसे पंजाबको जानेवाले सभी प्रमुख मार्गोका यह नाका है। प्रातकी सभी हलचलोंपर नजर रखने योग्य ऊँचा, दृढ और भव्य है प्रयागका किला ! १८५७ में यह दशा थी कि, जिसके हाथमे यह किला हो, उसके हाथ सारे प्रातकी बागडोर रहती। इससे दोनों ओरसे इस महत्त्वपूर्ण किलेको हथियाने या अधिकार में बनाय रखनेकी चेष्टाओंकी पराकाष्ठा की जा रही थी। क्रातिदलका आयोजन था, कि प्रयागके सैनिक तथा नागरिक एक साथ उठे। इस समय हिंदू मुसलमान दोनो स्वदेश की स्वाधीनताको प्राप्त करनेके प्रयत्न इतनी तीव्रतासे चला रहे थे कि सरकारी नौकर बने न्यायाधीश तथा मुन्सिफ भी गुप्तरूपसे क्रांतिदलके सदस्य थे। इलाहाबाटके अग्रेज अधिकारी अपने सभी सैनिकोंको राजनिष्ठाकी प्रत्यक्ष मूर्तिही मानते थे । विशेष्त्रमे, ६ वीं पलटन तो राजनिष्ठोकी प्रथम श्रेणी थी। एक दिन दिल्लीके समाचार सुनकर उन सैनिकोंने अपने अफसरोंसे प्रार्थना की, " साब, दिल्ली जाकर इन बागियोंका सिर कुचलनेकी हम आज्ञा दीजिये । हम इसके लिए वेचैन हो उठे है।" राजनिष्ठाकी बलिहारी ! आज्ञा हुई, कि गवर्नर जनरलकी ओरसे, ६वी पलटनको इस अजोड निष्ठा तथा विश्वासके लिए धन्यवाद दिये जायें। किन्तु इसी समय किसी चुगलखोरने बताया कि यह ६ वीं पलटन तो क्रातिकारियोंके साथ घनिष्ठ मित्रता रखती है। तब ६वी पलटनके सिपाहियोंने टो क्रातिकारियोंको पकडकर अग्रेजोंको सुपुर्द कर दिया । अब किसी तरह सदेहको स्थानही कहाँ ? तिसपर भी सरकार हमारी राजनिष्ठा पर का करती हो, तो हमारे हृदयोंको टटोलकर उसकी शुद्धताकी निश्चिति क्यों न की जाय ! ६ जूनको बडे अंग्रेज अधिकारी स्वय आ पहुँचे। देखते क्या है, कि वहाँ तो राजनिष्ठाका महासागर लहरे मार रहा था. यहॉतक, कि कुछ सिपाहियोने

  • चार्लस् बॉल कृत इंडियन म्यूटिनी खण्ड १. पृ. २८८