पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/२९०

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COM अध्याय १० वॉ उपसंहार दिल्ली, कानपुर, लखनऊ, बरेलीके मरे हुए था अब-तब करते हुए राजसिहासनोंमें फिरसे प्राण फूंककर जिस स्वातत्र्य-लालसाने उन्हे जीवित किया, उसीसे कुछ कुछ धुकधुकी लिए हुए अन्य सस्थानोपर वस्तुतः क्या प्रभाव पड़ा था ? १८५७ मे सर्वसाधारणको यह विश्वास था, कि विदेशियोंका जुआठा जबतक भारतकी गर्दनपर चढा हुआ है, तबतक ये सस्थान केवल चेतनाहीन कलेवरोंके समान ऐसेही सडते रहेंगे! १८५७के मानवी महासागरमें किसी राजा महाराजा या उनके उत्तराधिकारियोके लिए थोडेही तूफान आया था ? वह तो स्वाधीनताके परम पवित्र ध्येयसे प्रक्षुब्ध हो उठा था। राजा या रक, हर कोई मानव मरनेवाला है; किन्तु राष्ट्र कभी न मरना चाहिये, उसे मरने नहीं देना चाहिये । पराधीनताकी मीषण श्रृंखलाओको तोडकर स्वदेशको स्वाधीन रखनाही उस समयका व्येय था। और इसीसे उस साधनाका मार्ग राजप्रासाद या घर-झोंपडोंको स्मशान बनाते हुए बढनेवालो होनेपर भी, उस साधनाकी पूर्तिके लिए सार्वदेशिक युद्धकी तुरही फेंकी गयी । अन्य राजा तो मृतकके समान ही थे। ___ गवालियर, इदौर, राजपूताना, तथा भरतपुर आदि रियासतोंकी जनताभी इस स्वातत्र्य-समरके आवेशमें, ब्रिटिशोंने जिन्हे दास बनाया था उनके समान ही, प्रक्षुब्ध हो उठी थी। ' अपनी रियासत तो सुरक्षित है, • फिर क्यों इस व्यर्थ के झगडेको मोल लें' यह क्षुद्र विचार किसीके मनमें