पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/२९६

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प्रस्फोट] २५४ [द्वितीय खंड NrNN और हिंदी रियासतियोंके स्वामियोंने इस स्वार्थपरक मनोगतिके कारणही क्रांतिका गला घोंट दिया। दोनोंमें पॉव न रखकर यदि हिम्मत और एकही निश्चयसे----स्वाधीनता या मौत-वे आगे बढते तो अवश्य वे स्वतत्र हो जाते । किन्तु स्वार्थसे अधे बने और 'दुविधामें दोनों गये, माया मिली न राम' वाली गतिको पहुँचे। उनके मनमे भलाई की मात्रा बहुत कम और नीच स्वार्थकी मात्रा बहुत अधिक होनसे उनकी • मलाई वेकार गयी; हा, हीन वृत्ति समारके सामने प्रकट हुई। पटियाला तथा अन्य कुछ नरेगोंके समान वे खुल्लम खुल्ला देशके दुश्मन न थे; फिरभी अप्रत्यक्षरूपसे उन्होंने विश्वासघात का काम किया। स्वतत्र होनेकी उच्च आकांक्षा होते हुए हेय स्वार्थको उसपर हावी होने दिया और इसीसे उस पापके लिए उनकी घोर निदा हुई । अब इस पातकका प्रायश्चित्त वे कब करेंगे ? कब इस काले धब्वेको धो डालेंगे? । किन्तु जहाँ हीन स्वार्थपरक मनोगतिने हिंदी नरेशोंको इस हीन दशाको पहुँचाया, वह नीच स्वार्थ उनकी प्रजाके मनमें क्षणभर भी न जम सका। और मात्र इसी जनताकी शक्तिके प्रचड, आक्रमक विद्रोहसे सारे भारतको लगे पराधीनताके शापको भरम करनेको पेगावरसे कलकत्तेतक, विप्लवकी आग भडकी और खूनकी नदियों नहीं ! जनताहीके आपसी एके तथा बलके प्रभावसे और निःस्वार्थ लडाईसे कुछ समय तक सही, अग्रेजी शासन एक बार उखाड कर उसे धूल चाटनी पड़ी ।*

  • स. ३६ । जहाँभी हिन्दी नरेशोंने कातिमें शामिल होनेमें ननु-नच किया, उनकी प्रजा बेकाबू हो जाती, अपने राजाका जुवाडमी फेक देने को सिद्ध हो जाती, यदि वह राष्ट्रीय युद्ध में न आय । प्रजाकी यह अनोखी मनोगति देखकर मॅलेसन कहता है : “ ग्वालियर, इन्दौरकी तरह यहाँ भी यह स्पष्ट दीख पडा, कि जब पूरबके लोगोंकी धर्मभावना पूरीतरह उभाडी जाय, तो उनका स्वामी, जिनका राजा भी जिसे वे अपने पिताके समान मानते हैं, प्रभुका अश मानते हैं, उनकी श्रद्धा के विरुद्ध उन्हे झुका नहीं सकता"

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