पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/३०२

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प्रस्फोट . २६० [द्वितीय खड स्वधर्मके लिए अंग्रेजोके विरुद्ध उठकर, 'प्रतिशोध 'के नारे लगाते हुए, कुछ क्रातिकारियोने कुछ अंग्रेजोकी निर्दयतासे हत्या की, इस लिए! ___ अविवेकी हत्या सदाही घृणित पाप है । जिस समय सारी मानव जाति आत्यतिक न्याय तथा परमानन्दके विश्वात्मक आदर्शको पहुँच पायगी, जिस समय ईश्वरीय विभूतियो, पैगंबरों तथा धर्मोपदेशकों से वर्णित रामराज्य इस भूलोकपर हर एकके अनुभवकी बात बन जायगी, जब ईसामसीहके उस देववाणीसे दिया उदात्त उपदेश" जो कोई तेरे एक गालपर चॉटा मारे उसके आगे दूसरा गाल कर दे "-पर, इस आत्मसमर्पणके उपदेशपर, उस समय पहले गालपर मारनेवाला ही न रहनेके कारण, अमल करना असम्भव होगा तभी-उस सत्ययुगमे-यदि कोई विद्रोह करेगा, रक्त की एक बूंद गिरायगा, यहाँ तक, 'प्रतिगोध' शब्ट तक उच्चारण करेगा, तो उस पापीको उस क्रूरताके केवल उच्चारणहीके लिए अनत कालतक रौरव नरकमें डुबोनाही ठीक होगा। हर एक हृदयमे जब सत्यधर्मका उदय होगा, तब 'विद्रोह' की प्रवृत्ति भी बहुत दुष्ट पाप मानना योग्य होगा। न्यायनीतिके सूरजकी किरणें जब हर आत्माको उज्ज्वल बनायेंगी तब 'प्रतिशोध' का उच्चारण भी सचमुच . पातक माना जायगा, जाना भी चाहिये ! सत्यधर्मके उस निरपवाद न्यायपूर्ण युगमें 'बदला' के पापी शब्द बोलनेवाले पातकीको दण्ड देना, निस्सदेह, अदूषणीय माना जाय ! किन्तु जबतक वह सत्ययुग इस भूलोकपर उतरा नहीं है, जबतक वह परमानन्दका आदर्श शुभ काल, संतमहन्त तथा प्रभुके प्यारे पुत्रके भविष्य कथनही में गूंथा पडा है, जबतक वह निरपवाद न्याय हमारे अनुभव की बात बनानेके लिए मानवी मन अपनी पापी और आक्रमक प्रवृत्तिको नष्ट करनेमे सफल नहीं हुआ है, तबतक विद्रोह, रक्तपात और प्रतिशोधकी गिनती नितात पातकोंमें कभी न होनी चाहिये । जबतक 'शासन' शब्दका उपयोग 'अधिकार' न्याय्य और अन्याय्य दोनों अर्थमें किया जाता हो, तबतक उसका प्रतियोगी शब्द 'विद्रोह' मी न्याय्य और अन्याय्य टोनों