पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/३६

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ज्वालामुखी] ४ [प्रथम खंड

घटनाओमें एकाएक सिलसिला दिख पडता है, टेढीमेढी रेखाऍ सीधी हो जाती हैं;अंधेरा उज्वल हो जाना है और पहले जो गंदा लगना था वह अब सुंदर भासना है; उसीतरह, पहलेके सनसनीदार प्रसग अब अलोने मालूम होने हैं और जाने या अनजाने, किन्तु सुस्पट्ट रूपमे, सच्चे इतिहामके प्रकाशमे, क्रांति निखर पडती है।

१८४७ की प्रचंड क्रांतिका इतिहास, इसी वैज्ञानिक दृष्टिमें, आजतक किसी भी विदेशी या स्वदेशी लेखकने नही लिखा है। और इसीसे उस क्रानि के बारे मे अनहद विचित्र, असत्य एव अन्याय्य कल्पनाऍ संसार भर मे पक्की हो गयी है। अग्रेज ग्रथकारोंने इस बारे मे ऊपर गिनाये हुए सभी प्रमादों को अपनाया है। उनमें कुछ ऐसे है जिन्होंने केवल घटनाओं का वर्णन करनेसे अधिक कुछ नहीं किया; तो भी बहुतेरोंने यह इतिहास पक्षपाती तथा दुष्ट बुद्धिसे प्रेरित हो कर ही लिखा है। उनकी दूषित दृष्टि उस क्रांति के बुनियादी सिद्धान्त को न देख सकती थी और न देख सकी। क्या कोई समझदार व्याक्ति कभी ऐसा विवेचन कर सकता है कि इस अतिविशाल क्रांति को चेतना देनेवाला कोई विशेष सिद्धान्त था ही नही? पेशावर से कलकत्तेतक उछली हुई लहर, अपने उत्पात के जवडे मे निश्रित रुपसे, कुछ हडप जाने का उद्देश न रखने हुए, उठी हो यह क्या कभी सम्भव हो सकता है? दिल्लीके घेरे, कानपुरकी कतलें, हजारों वीगें का खेत रहना, और ऐसी ही कई उदात्त और स्फूर्तिमयी घटनाऍ, क्या उसी तरह के उदात्त और स्फूर्तिप्रद आदर्श के बिना ही घटी होगी? किसी छोटेसे गाव का हाट भी बिना किसी हेतु के, नही भरता। तो फिर जिस हाट की दूकानें पेशावरसे कलकत्तेतक फैली हुई रणभूमिपर करीनेसे लगी हुई थी, जहाँ राज्य और साम्राज्य वेचे जा रहे थे, और जहाँ चलन का सिक्का केवल लहु ही था; हम कैसे माने कि वह विराट हाट बिना किसी कारणपरपरा के बना और बिगडा? नही। न वह बाजार बिना कारण के बना, न टुटा! अंग्रेज इतिहासकारोंने ठीक इसी बात को, इस लिए नही कि उनके लिए इसे मनवाना दूभर था वरच इसे मान लेना उन्ही के हक मे हानिकर था, जानबूझकर टाल दिया हैं।