पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/३९१

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अध्याय ५ वॉ ३४७ [लखन चढाी की और फिर इलकी मुठभेड के बाद क्रातिकारी भाग गये। तीसरी बार हॅवलॉक ने अपने मन से पूछा- यह जीत है या हार ?' नहीं; न वह जीत थी, न हार ! तब फिर हॅवलॉक मंगलवारे को लौटा। अिसी बीच अिधर नानासाहब की सभी योजनाओं पक्की हो गयी थी । सागर तथा गवालियर के विद्रोही, तथा स्वयसौनिकों के की दस्ते अन्हें आ मिले थे। सब को साथ लेकर नानासाहब बिठूर की ओर चल पड़े, जिस से कानपुर को खतरा पैदा हो गया। जनरल नील के पास नानासाहब पर टूट पडने के लिये आवश्यक सेना न होने से, असने सब स्थिति हैवलॉक को बता दी। अब तो लखनअ को दौड जाना और वहाँ के अंग्रेजों को छुडाना सौ टका असम्भव था । जिसीसे १२ अगस्त को विलॉक को फिर से गंगापार होकर कानपुर को लौटना आवश्यक हुआ। अग्रेजी मारू बाजे जब पीछे हट ' के सुर निकालने लगे, तब, मानो, स्वतंत्रता का डका ही पीटा जाता हो,यह मान कर,क्रांतिकारियों में चारों तरफ आनंद के नारे गूंजने लगे। अपनी टेकपर स्थिर रहे जमींदारो! अपना रक्त बहा कर और अवध से विदेशी सत्ता की गुलामी को भूमिमें गाड कर तुमने स्वदेश की अत्तमोत्तम सेवा की है। श्री. अिनीज लिखता है " अवध से अंग्रेजों की अिस पीछे हट से, निस्सदेह बहुतही अजीब परिणाम निकला | मिस पीछे इट का अर्थ, अवध के सब तालुकदारोंने यही लगाया कि अब अवध से अंग्रेजी शासन अठ गया है। और, तब, लखन की राजसभा ही को अन्होंने अपनी अधिकृत केन्द्रीय सरकार माना । और आजतक जिस लखन राजसभा के पृष्ठपोषक बन कर अस का बल बढने की बात को आज तक जो टालते रहे थे, वेही जमींदार, अब, असी राजसभा की आज्ञा पर अपनी सेना को झट समरांगण में भेज देने लगे । * क्रांतिकारियों की यह सीपी जीत भलेही न हो, अप्रत्यक्ष रूप से वह । विजय ही थी । अपर्युक्त चार भिडन्तों के समान केवल हवलॉक की पिछाडीपर

  • सिपॉयीज रिहोल्ट, पृ. १७४