पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/४०७

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अध्याय ६ वॉ] ३६५ तात्या टोपे m किन्तु स्वाधीनता के भाव जग अठते ही नानासाहस के दरबार ने भी, रायगढ के सुस प्राचीन पवित्र दरबार के समान, अपना असाधारण बुद्धिवैभव, सावधानता तथा तेजस्विता प्रकट की थी! सफलता प्राप्त करने के लिअ नतन अकारित साधना की आकांक्षाओं की चेष्टा शुरू हो गयी। जिस समय नये सिंहासन खडे करने थे, नयी सेनाओं संगठित करनी थी और आये दिन समरांगण में डट कर मैदान मारना था। विजयप्राप्ति से अभी कहीं वह दरबार प्रफुलित हो गया था, जब कि कानपूर की हारसे विषण्णता की छाया वहाँ पठी थी। किन्तु वायुमण्डल में गंभीर सन्नाटा छा गया था, क्यों कि पिछले अपमानों के प्रतिशोध की योजना बन रही थी; अिस सन्नाटे का भंग केवल क्रांतिदल की योजना की व्योरेवार चर्चाही से हुआ। और स्वाभाविक था, अब तक योग्य अवसर माप्त न होने से सोयी पडी तात्या टोपे की कर्तृत्वशक्ति साहसपूर्ण हुकार से प्रकट हो जाय । जो चतुर योजनाओं अबतक अस के मन में अछल रही थीं, अन्हें प्रत्यक्ष में परखने का अवसर अब आ लगा था। और, सचमुच, मानना ही पड़ेगा कि चतुरतापूर्ण मौलिक और सफल योजना बनाने में तात्या टोपे का हाथ थामनेवाला कोमी व्यक्ति मिलना दूभर था। तात्या का विचार था, कि कानपुर के पराभव से अव्यवस्थित बनी सेना को फिर से सुसंगठित की नाय । तात्या का मुंहतोड तर्क मानवी मन के अत्यंत गूढ भावों के गुणदोषों का सूक्ष्म ज्ञान, और असाधारण व्यक्ति में होनेवाला साइस आदि सभी लोकोत्तर गुणों के सुंदर मिश्रण से, अच्छृखल सिपाही अक मन से, अक दिन में, मेक सुगठित सेना के रूप में, सिद्ध हो जाते । नये रंगरूटों की बात झुठी तब तात्या सीचे शिवराजपुर को गया और अभी झुठे ४२ वी पलटन को अपने कार्य में जोड लिया। जिस बीच, इवलॉक गंगापार हो कर लखनशूपर चढ जाने के विचार में था। तब तात्याने भी असकी पिछाडीपर हमला कर असे सताने की ठानी। जिस के कारण अग्रेज सेनापति को फिर कानपुर को कैसे लौटना पडा, लौटनेपर यह देखकर कि ब्रह्मावर्त के राजमहल में मराठों का राजा फिरसे बिराजमान है, असके अचरज का ठिकाना