पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/४२१

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अध्याय ७ वॉ] [लखन का पतन चंदूकों से पैसे निशाने मारे को शत्रु को पास आने की गुंजाअिशा न रखी। अन्त में, अिमारत को अडा देने का (श्चय हुआ। 'जिंजीनिअर्स' से स्कॅचली को बुलाया गया; अंसने वोहरि की सहायता से राअिफली कारतूमों 'की सुरग की माला बनायी और जला दी। अिस सुरंग के स्फोट से वह स्थान लडानेवाले वीरों के मस्तक, वे जिसे चाहते थे अस हुतात्मा के मुकुट से विभूषित हुआ और वे अस भिमारत के मलवे के नीचे दब गये।" और तभी से मिटावे के वीरों का यह पावन समाधिस्थान, परम अदात्त ध्येय के लिओ "कैसे मेरे " अिस विषय पर अपनी मूक किन्तु महाभीषण वक्तता दिनरात सुनाते हुमे, आज तक अस स्थान पर खडा है। __ वीर भूमि अिटावा ! अजरामर-कीर्ति मिटावा! अिस से बढकर क्या पवित्र स्फूर्ति अस थर्मापीली के दो में, बेश्शा की किलाबंदी में या नेदर्लंडस् के द सतर के कलेवर में होगी अिटावा अमर रहे ! अिटावे की जय! ___जब वॉलपोल अिटावे पहुंचा तब सीटन भी अलीगढ, काशगंज और मैनपुरीसे क्रातिकारी दस्तों से टक्कर देते हुसे बढ़ रहा था। ८ जनवरी १८५८ को दोनों सेनाओं मैनपुरी में मिलीं। निश्चित योजना के अनुसार दिली तथा मेरठवाली अग्रेजी सेना ने दोभाव में जमुना किनारे मिलाहाबाद तक का प्रदेश फिर से आक्रमित किया था। बीच में कम्बल गंगा कॉठ से अपनी प्रगति करही रहा था। फतहगढ के नवाब को हरा कर दोआब के कातिकारियों को मिटाने के लिओ कानपुर जा रहा था। दोआब के सभी क्रातिकारी अस समय फतहगढ में जमा हुआ थे। फर्रुखाबाद के नवाब ने स्वतन्त्र होने की घोषणा फतहगढ में की थी। ये सब लोग दिली और कानपुर में हार कर भागे हु अनसाधे स्वयसौनिक थे, जो अग्रेजों के सामने ठहरने की चेष्टा भी न करते हु भाग खडे होते थे, अपनी जान बचाने के लिअ । किन्तु क्या, अिस कायरता से वे अपने प्राण बचा सके ! नहीं कदापि नहीं! अंग्रेजी सेना अन का जोरों से पीछा करती और अक अफ अवसरपर ६०० से ७०० लोगों को और कभी कभी तो सहस्र सहन लोगों को तलवार के घाट अतार देती थी! मिटावे के अन मृत्यु गले लगानेवाले वीरों तथा अिन कायरों में स्वर्ग-नरक का भेद था!