पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/४३२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

[तीसरा खंड ३९० अग्निप्रलय] सौनकों से पुष्ट बने गोरों की यह अन्तिम आक्रमण की लहर सब को डूबो देगी। किन्तु मौलवी ने निराशा के घटाटोप अंध:कार को चीर कर आशा की अषा के दर्शन करवाये । अपनी अमोघ वक्तृता तथा प्रभावी व्यक्तित्व से असने अनगिनत हिंदी भाभियों के हृदय में देशभक्ति की लगन पैदा की। असने जनता को ऊँचा दिया कि अक मन तथा दृढ निश्चय से डट कर, आक्रमण का जवाब आक्रमण से दें, तो अबभी अंग्रेजों के पिटने की पूरी सम्भावना है। सारे दोआब में अपने आत्मविश्वास को सेना में संचार कर अनुशासन तथा नियमबद्धता पैदा की, जिसमें असे की विपत्तियों का सामना करना पड़ा। दरबार में अहमदशाह की जो प्रतिष्ठा बढ़ रही थी असे देख न सकने से कुछ अकर्मण्य लोगों ने असे कारागार में बद कर दिया। किन्तु बेगम से मौलवी का प्रभाव सेनापर अधिक होने से तथा दिल्ली की सेना का अहमदशाह पर नितांत विश्वास होने से, बेगम को मौलवी को मुक्त करना पडा । जब अससे युद्ध की स्थिति पर सम्मति पूछी गयी तब अस ने कहा-'बढिया अवसर हाथ से चला गया। सब ओर ढीलापन देख रहा हूँ; अब केवल अपना कर्तव्य पालन करने भर को लडना है!" कभी कभी मौलवी स्वयं सेना का नेतृत्व करता ! जब देशी सेना आलमबागपर चढ जाती तब मौलवी सब के आगे चमकता दिखायी पडता! दिसबर २२ को असने चकमा देकर अन्हे आलमबाग में बद कर देने का अक कुशल दॉव रचा था । अंग्रेजों को झांसा दे कर वह अपनी सेना के साथ कानपुर के रास्ते चल पड़ा । निश्चय यह हुआ था, कि मौलवी अंग्रेजों की पिछाडीपर पहुँचते ही क्रांतिकारी आगे से आलमबागवालों पर हमला करें। यह दाँव अवश्य अक महत्त्वपूर्ण सूझ थी और वह सफल हो भी जाता. किन्तु आलमबाग के सैनिकों में सहयोग न होने से सब बेकार हुआ। वहाँ को कमांडर अपने अनुयायियों में मामूली अनुशासन को रख न सका। हर अक अपनी मर्जी से चलने लगा और पहले ही झटके में चढाी करने के बदले पीठ दिखा कर सब भाग गये । मौलवी की तनतोड चेष्टा मेकार गयी। क्रान्तिकारी हार गये।