पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/४८०

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तो अपने सिन्हासनपर स्वतंन्न ही रहेंगे था यज्ञामि ने जल कर भस्मसात् हो जायेंगे 1 इ दूँत्रहहुँमेरा सौंवी नहीं दूंगी; जिस की स्थित शे वह अद्रजमा ले 1 हैं क्षित अस्थान के साथ सौंवी की शूर राणी दोक्यों से लोहा लेने को सिद्ध हुजी । औऱ समूचे बुंदेलखण्ड में आगामी कांतिके तूफान के लच्छन वहुत गहरे ओइ भयंकर दिखस्यी। हिये । सागर, वैणोंव, र्वीदा, बानापुर, शाहगद और क्रालपी ये प्रतिशोध की फेक्ति लहरें जेक दूसरी से होड लगा रही थी । अब तक लस्सी की स्थाबीनता--लेतुभने खुस की प्रजा कौ शान्त, सुखी, और सुव्यवस्थित रखा या । किन्तु डलहीवी जव से-बुन्से चुदा ले क्या तव जनता का मस्वसाद्रगृर तल से बिलोडा क्या । किन्तु बहुत जलद लढपीने अपने वलसे चोर के हार्थों से वह छीन लिया, लंहरेंरैपर मात का तूफान पर काबू किया और जनता के भादों की दुत्माड को मर्यादा में रखा । स्थाबीनल का रत्न घुसने अपने ह्रदय के पास रखा और हाँर्वजंयमाव से राज कर रही थीं। युद्धदेवैहै रानी अभी का वह भयंकर रूप अब और कुछ हो क्या है; हूँठमलासना लह्रमी की कैमिलताने कुस का स्थान लिया है । अब तक के दुत्स के विकराल रूपसे आँखें चौंधिया जाती बी, क्यों कि, वह सिर से पैस्तक शवों से सुम्नजित बी, अब फिर से कमल के रंग के कपडों से लेख छवेली म४लूम पडती के ।

फिर से जब वह इरेंसी का षक्ति क्तिसन स्वाधीनता की सुदस्ता से बिकूजैत हुभाँ तब से प्रजा मैँल्यास्था, ब्रनिक्रित और आनन्द का बसेरा हो

' गया । बिस समय रानी लस्वी का दैनंदिन कार्यकम यों बखाना गया हैदृ"

" राना लश्लीबाबंकै तड़कें पचि की जुट को शिव से सुगक्ति जल है नहाती थी । वस्त्र पहनने के बाढ़डऔंर साधारण तया वह सफेद चंदेरी साडी ही पम्नद करती थी-पूजा पाट के द्दलेबे बैठ जातें। । विधवा होने पर भी वषव न करने के लिजे वह प्रायमित्तार्व्य देती; की तुलसी हुँदावनमें तुलसी की पूजा करतीं; कुंस के बाद पार्थिव-पूजा लेता । तब दरवारी संगर्तिज्ञ साम गायन करते फिर कथावाचक क्या सुनाते । समगंतैपरु सरदार और माण्डक्ति वंदना करते ।