पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/५२८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

अस्थायी शान्ति ] ४८४, [चौथा खंड भी क्रांतियुद्ध में हाथ बंटाने के लिये भागानगर की जनता असे अभाडने में होगी बात अठा नहीं रखती थी! किन्तु सालारजंग टस से मस न हुआ; तब १२ जून १८५७ को भामानगर में बड़ी तीन अत्तेजना दीख पडी। अस दिन लब्धप्रतिष्ठ मौलवी के हस्ताक्षर से निकले पर्चे दीवार पर चमकने लगे। क्रांतिकारी हस्तपत्रकों के तो ढेर लगे थे। मसजिदों में मुसलमानों की बडी बडी सभा हुी, जहाँ अत्तेजनापूर्ण भाषण दिये जाते थे और लोगों से प्रतिज्ञा करायी जाती, कि फिरगी काफिरों को , भारत से निकाल बाहर कर देने की चेष्टा करेंगे। सालारजंभ पर अिन सभी बातों का कोश्री प्रभाव न पडा; अलटे असने कुछ नेताओं को पकड कर अंग्रेजों के हवाले कर दिया । तब जुलामी १७ को भामानगर में बलवे का, प्रारंभ हुआ और क्रांतिकारी नारोंने धूम मचा दी। झण्डे लहराकर अपने , क्रांतिकारी नेता को छुडाने के लिखे लोग ब्रिटिश रोसडेन्सी में घुम्न पडे । सब से पहले निजाम की सेना के रुहेलों तथा ५०० नागरिकों ने बलवा किया। लोग मानते थे, भागानगर सस्थान सीधी तरह सहायता भले ही न दे सके । अप्रत्यक्षरूप से सालारजंग चुपकी से सहानुभूति रखेगा; कमसे कम तटस्थ रह कर ब्रिटिशों का साथ तो न देगा; किन्तु सालारजंग ने सब को . निराश किया। वह तटस्थ रहा ही नहीं, अलटे असने ब्रिटिश सैनिकों से . मन्त्रणा कर अपने ही संस्थान के सैनिको की हत्पा करने में ब्रिटिशों का हाथ बॅटाया । मेक भिडन्त में क्रांतिकारी नेता तोराबाजखाँ मारा गया और अल्लाजुद्दीन पकडा गया, जिसे तुरन्त अंडमान भेजा मथा । अिस , तरह भागानगरवालों की चेष्टाओं व्यर्थ हो गयीं । अंग्रेज मितिहासकार खुलकर , मान्य करता है, " तीन महीनौतक समूचे हिंदुस्थान का भाग्य अकेले सालारजंग, के हाथ मे था । भागानगर की दूरंदाजी से यही सिद्ध होता है, कि विद्रोही सिपाहियों के प्रयत्न से दिल्ली के सिंहासन का पुनरुज्जीवन होने की आशापर संदेहपूर्वक अपलबित रहने की अपेक्षा, आज के अंग्रेजों की छत्रछाया के नीचे माण्डरिक जम कर रहना अधिक अच्छा है, हैदराबाद के शासकों का यही . विचार था।