पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/५३

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अध्याय २ रा] २१ [कारणों का सिलसिला तम अग्रेजोंने उसे मान्यता देकर वचन दिया था कि, " स्वतन हिंदुनरेशोंको दत्तक गोट लेने और अन्य दूरके उत्तराधिकारीको खारिज करनेका पूरा अधिकार है; और हिंदु धर्मशास्त्र ऐसे कामको विरोध न करता हो तो अंग्रेज सरकारको उसे स्वीकार करनाही पडेगा।" मतलब, यह वेखटके कहा जा सकता है कि एक बार स्पष्ट दिये और खतपत्रोंमे दर्ज किये वचनासे, यह कहकर कि ऐसे वचन दिये ही नहीं थे, इनकार करनेकी निर्लज्जता तथा साहस अग्रेज राजनीति के बिना और किसी स्थानमें नहीं पाया जायगा। केवल उपर्युक्त घोषणाओहीमें नहीं किन्तु अन्य कई अवसरोंपर अंग्नेजोंने स्पष्टतया मान्य किया है कि, हिंदुधर्मशास्त्रके अनसार हर हिंदुनरेगको पुत्र गोद लेनेका जन्मसिद्ध अधिकार है ही। थोडेमें १८४६ से ४७ के दो वर्षों के छोटेसे कालखण्डमही, अमेजोने कई दत्तक वारिसोका गद्दीपर बैठनेका अधिकार मान्य कर, उनके राज्य कारोबारको सम्मत किया था। आश्वासनो तथा आपस में की हुई सधियो के शब्दजाल में संस्थानो पर दखल करने के मूल कारणों को देना तो बिलकुल ऊँधे रास्ते जाना है। इन सत्र बनावों की सच्ची पृष्ठभूमि यह है कि, डलहौसी समूचे भारत को 'समथर' बनाने के लिएही यहाँ आया था और यहाँ तो भूमिमं गडा हुआ सातारे का मृत साम्राज्य फिरसे उठ खडा होने की चेष्टा कर रहा था, जिससे स्पष्ट है कि, प्रतापसिंह तथा अप्पासाहबने हिदुधर्मशास्त्र के आशानुसार यद्यपि दत्तक गोद लिया था तो भी अग्रेजो ने, सातारा नरेश निःसतान होनेके बहाने, सातारा जब्त कर लिया। सातारे का सिंहासन! इसीपर शिवाजी महाराज को श्री गागाभट्टने राज्याभिषेक किया था! इसी सिहासन के सामने बाजीराव प्रथमने अपना उज्ज्वल जश तथा विज-यश्री धर कर अपना मस्तक नवाया था। महाराष्ट्र , देख! जिस सिंहासन को श्री शिवाजी महाराज ने विभषित किया था, संताजी धनाजी जैसे वीरवरीने जिसे राजबहना अर्पण की थी उसी सिहासन के, डलहौसीने, टुकडे टुकडे कर डाले! अनियों, प्रार्थनाएँ, और शिष्टमडल ले जाना;

  • पार्लियामेंट पेपर्स १५ फरवरी १८५० पृ. १४१