पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/५५

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अपने गले का हार मानने की मूर्खता जिन्होने की थी उन्ही का, अनहद निर्दयता और विश्र्वासघातसे,अंग्रेजोने सत्यानाश कर डाला। वराड का राज्य कोई अंग्रेजोके बाप की जमीदारी नही थी;या अंग्रेजो की मजीपर ही जिन की हस्ती अवलत्रित हो ऐसा कोई सामतराज्य भी न था। फिरगी सरकार के समान वह एक स्वतत्र और स्वयपूर्ण राज्य था। जे,सिलठ्हियनने अंग्रेजोको साफ शव्दोमे ललकारा था "किस कारण्से और किस न्यायके दिखावेसे (चाहे वह पाक्षिमात्य हो या पौर्वात्य) अंग्रेजो को हक है कि वे केवल इसलिए किसी के राज्य को जब्त करे कि उसका राजा निःसंतान मरा"।

सचमुच वह सब एक हथकडे का इद्रजाल था। एक उडा ले और दुसरा साथी चुपचाप उसे छिपाये रखे!एक सिर काट ले और दुसरा साथी चिल्ला चिल्ला कर पुकारता जाय 'किस न्याय या निबैध के आधार पर तुमने यह काम किया है?' मानो, चोरो और खूनी डाकुओ को अपने काम की पुष्टिमे किसी न्याय, निबेध की आवश्यकता होती है! स.१८५३ मे निदान डलहौसीने अपने "मित्रोके" गलेपर खूनी खंजर फैर ही दिया! और केवल इसी बहाने कि भोसलेने दत्तक गोद न लिया। राजा रघूजीको प्रबल आशा थी कि उन्हें पुत्र अवश्य होगा किन्तु एकाएक उनका अन्तकाल हुआ। फिर भी उनकी धर्मपत्नी रानी को दत्तक गोद लेनेका पूरा अधिकार था। हाँ,इसके पहले मृत राजाओकी रानियोने गोद लिए दत्त्क पुत्र को अंग्रेजोने न माना होता तो हमे कुछ कहना न था, किन्तु यह तो सब जानते है कि १८२६ मे दौलतराव शिंदे की विधवा रानीके गोद लिए हुए,१८३४ मे धारके राजाकी विधवा के लिए हुए और १८४९ मे किसनगढकी रानीके लिए हुए दत्तकको अंग्रेजोने मान लिया था। एंक दो नही, कई एक दत्तविधानोको अंग्रेजोने मान्यता दी थी। किन्तु, ध्यान रहे; ये सब दत्तविधान मान लेना उस समय अंग्रेजोके लाभ मे था। हाँ, इस बार राजा रघूजीकी रानीका दत्तक मान लेना उनके स्वार्थके विरुद्ध था, जिससे स्पष्ट है कि अंग्रेजोका हानि-लाभही उनकी नीतिका आधार था। नागपुर नरेशने दत्तक नही लिया और सातारेके छत्रपतिने गोद लिया इससे दोनो हे राज्योपर अंग्रेजोने कब्जा जमाया। तर्कशास्त्र भी यहाँ लाचार हो जाता है।