पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/६५

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अध्याय ३ रा] ३३ [नानासाहेब और लक्ष्मीभाई •••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••• रकम इकट्ठी की है वह इतनी अधिक है कि उनके परिवार के खर्च के लिए काफी है। कंपनी भूलती है कि यह पेन्शन आपस की सधि के एक शर्त के अनुसार मिलती थी और उस के खर्च करने के तरीके पर कोई नियंत्रण उस शर्त में नहीं रखा गया है। इस से हमारा सीधा सवाल है कि, पेन्शन किस तरह खर्च किया जाय यह पूछने का कंपनी को क्या अधिकार है? रचमर भी नही है। कंपनी ने कभी अपने नौकरों से भी पूछा था कि उन के पेन्शन को वे कैसे व्यय करते है और उससे कितनी बचत करते है। तब कितने आश्चर्य की बात है कि जो प्रक्ष अपने नौकरों से कंपनी नहीं पूछ सकती वह एक राजवंशीसे किया जा रहा है और सधि की शर्तों को ठुकराने का बहाना ढूँढा जा रहा है।" इस तरह तर्कसंगत और स्पष्ट निवेदनपत्र लेकर नानासाहब का अत्यंत विक्ष्वासी नयदूत (अंबेसडर = एलची) अजीमुल्लाखान इंग्लैंड रवाना हुआ।


१८५८ के क्रांतियुद्ध में काम करनेवाले व्यक्तियों में अजीमुल्लाखान का नाम खास ध्यान में रखना चाहिये। स्वातंत्र्य-समर की सूझ जिन असाधारण , बुद्धिशाली तथा विशाल ह्रदय की व्यक्तियों के मन मे सर्व-प्रथम पैदा हुई, उन में अजीमुल्ला का स्थान बहुत ऊँचा है; और जिन अनेक आयोजनों के कारणा अन्यान्य अवस्थाओं से गुज़रती हुई क्रांति का विकास हुआ उनमें अजीमुल्ला की योजनाएँ महत्व रखती है।


अजीमुल्ला का जन्म एक गरीब परिवार में हुआ था। अपने गुणों के बलपर उसकी उन्नती हुई और आखिर वह नानासाहब का विश्र्वसनीय मंत्री बना। बचपन में गरीबी के मारे वह एक अंग्रेज़ परिवार में नौकर रहा था। किंतु उस हैसियत में भी "महत्त्वाकांक्षा की ज्योति उसके अंतःकरणमें सदासे जलती रहती थी। साह्ब का 'बाँय' बनकर रहते हुए उसने कई विदेशी भाषाए सीख ली और थोडे ही समय में वह अंग्रेज़ी तथा फ्रान्सीसी भाषाए धारावाही ढंगसे बोलने लगा।