पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/६६

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दो भाषाआोॱ का पुरा अध्ययन कर लेने के बाद,अजीमुल्लाने फिरंगी की सेवा छोड दी और कानपुर की एक, पाठशाला मेॱ भरती हो गाया। अपनी असाधारण क्षमता के कारण थोडेही समयमे़ वह उसी पाठशाला मे़ शिक्षक हु‌‌‌आ। वहाँ उसका ब‌‌‌‍डा नाम हुआ और उसकी वि की कीरती नानासहब के कानोॱतक पहुँच गयी,जिससे उसका पृवेश बिटूर के ढरवारेमे हुआ। पहले ही उस की दी हुई नेक सलाह नानासहब को जाँच गयी, जिसकी उन्होने प्रवेश की और फिर तो,बिना अजीमुल्ला की सलाह के नानासाहब कोईभी महत्वपुर्ण काम नही करते थे। स॰१८५४ मे नानासाहब ने उसे अपना एलची बनाकर इग्लैड भेजा। उसका चेहरा सुन्दर था; साथमे उसकी वाणी भी मीठी किन्तु गंभीर थी। अंग्रेजो के उस समय के रीतिरिवाजो का बहुत अच्छा जानकर था जिससे लंदन के राजनैतिक क्षेत्रमे वह बहुत जल्द प्रिय बन बैठा! इसकी मीठी वाणी की मोहिनी और मुसलमानी रुबाव तेजस्वी व्यक्तित्व से कई आंग्ल युवतियाँ उस पर आशिक हो गयी। उस समय लंदन के क्रीडोंध्यानों में और ब्रयटन के पुलिन पर जवेरात से लदे इस हिन्दी 'राजा' को देखने के लिए लोगों के झुड उमड पडते थे। ऊचे, प्रतिष्ठित धरानों की कई अंग्रेज महिलाओ तो इससे इतनी पागल हो गयी थीं, कि उसके भारत लौट आनेपर भी, प्रेमभीनी चिठ्ठियाँ उसे भेज करती थी। आगे चलकर जब हँवेलाँक की सेनाने बिठूर छीन लिया तब हँवेलाँक को वहाँ 'अपने प्रीतम अजीमुल्ला' के नाम लिखे अंग्रेज महिलाओं के हस्ताक्षरमें कई पुत्र प्राप्त हुए।

किन्तु, अजीमुल्ला के अंग्रेज युवतिओ को अपने पीछे पागल बनाने पर भी ईस्ट इडिया कंपनी ने अपने हठीले रुखपर जरा भी आँच न आने दी। कुछ समय तक वह उसको गोलमोल उत्तर देती रही और निदान टका-सा जबाव दे दिया, कि "गवर्नर जनरल ने जो निर्णय दिया है, कि दत्तकपुत्र नानासाहब को अपने पिता की पेन्शन पर किसी तरह का अधिकार नही है, हमारी रायमें बिलकुल ठीक है।" इस तरह उस की यात्रा का प्रमुख हेतु बिगड जानेपर खाली हाथ लौटते समय उसका मन कुछ दुःखी हुआ। 'कुछ़' इस लिए कहा है कि, इसी समय एक नूतन आशा उस