पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/६७

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के मन मे सिर उँचा कर रही थी। उस आशा कि सफलता मे किसी विदेशी की सम्मति अपेक्षित नही थी, किन्तु उसकी सफलता केवल उस के स्वदेश तथा देशत्राघवो पर निर्भर थी। स्वजनो कि अनुमति कैसे प्राप्त करे साम, दाम,भेद ये तिन इलाज करनपर भी स्वदेश की स्वाधीनता प्राप्त नही होती तब, किस दण्ड-शक्ति का उपयोग करे? इस विचारसे अजीमुल्ला के ह्रदय मे एक नुतन आशा, एक नवचैतन्य पेदा हुआ। ठीक इसी समय लदन की प्रतिशिश्त वार्तामे एक क्षत्रिय चिन्तामग्न हो बैठा था। उसे भी यही विचार सता रहा था की अर्जा-प्रार्थना से जो प्राप्त नही होता उसे किस उपाय से हासिल करे? और असीम निराशा के परिराम से पेदा होनेवले प्रतिशोध से अभिभूत हो कर वह अन्यान्य आयोजनो के परिणाम से विपय मे सोच रहा था। यह क्षत्रिय या सातारे का एलची रगोन बापुजि । पेशवा का प्रतिनिधि अर्जामुल्ला उन्से कइ चार मिल्ता था और उन दोनो मे गूप्त मत्रणाए भी हुआ करती थी। स्वाधीन्ता प्राप्त करने के आयोजनोमे मशगुल छ्त्रपति तथा पेशवा के इन दो एलचियो को कुछ समय के लिये भूलकर नानासाहेब की गतिविधिपर ध्यान देना हमे आवसयक है। वह दिन बङे सोभाग्य का होगा, जब समार के सम्मुख श्रिमन्त नानासहेब पेशवा की जिवनी सिलसिलेवार रखी जाएगी। किन्तु तबतक नानासाहेब् के कट्टर शत्रु अग्रेज इतिहासकारोन के उन के जिवन के मोटे प्रसगो का वर्णन यहा करना असगत न होगा। आवश्यक होनेपर उन के जवान होनेतक का इतिहास हम जान ही चुके है। उनका ब्याह सागली के महाराज की ममेरी बहन से हुआ था। सन १८५७ के उत्थान का कर्यकरम उत्तर भारत के लिए निछित करनेपर नानासाहेब के इस नातेदार सालेने उसीसरह का सगठ्न तथा रिति महारास्त्र मे भी करने के लिए पटवर्धन वशिय रियासतोन् मे सब प्रकासे सिध्ता कर रखी थी।अपने पिता की म्रित्यु के बाद नानासाहेब त्रिठुर ही मे रहे। यह नगर योन भी दर्श्नेय था; उसकी किलावदी से टकराकर बहनेवाली भागीरथीने उस्की शोभा और भी बदा दी थी। नानासहेब के राजमहल की बारहदारी से तो छग्य बहुत मुदर दिख पङ्ता था। आगे फैला हुआ भागिरथी का प्रशात जल, उस के तटंपर आनदसे