पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/७६

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ज्वालामुखी] ४४ [प्रथम खंड इसतरह कपनी को दिये हुए जबरदस्ती के कर्ज तथा दान के कारण राजकोष खाली हो गया और नवाब के लिए स्वतत्ररूपसे अपने प्रदेश पर राज चलाना, किसी तरह के सुधार करना असम्भव सा हो गया। किन्तु 'ससार का भला करने की ठेकेदार कपनी सरकार नवाब साहब को लगातार सताती रही कि राज्यप्रबंध में अपनी रियाया को सुखी और सतुष्ट करने के लिए अवश्य सुधार करे। किन्तु नवाब क्या कर सकता था ? राज की आमदनी बढाने के प्रयत्नो में कंपनी हर बार कोई न कोई बहाना कर टाग अडाती। राज के जिन पुराने निधो (कानूनों) के कारण जनता सुखी थी उन सभी निधो को रद कर कपनी ने नये कानून बनाये। इन बदले हुए निर्बधों के कारण जनता की दुर्दगा हुई; जिससे कपनीने भी अपनी भूल कोई दस साल के बाद मान ली। मतलब, कपनीने नवाब के अंतर्गत राज्यप्रवधर्म अनधिकार हस्तक्षेप किया; जहाँ दूसरी ओर से यह जताना शुरू किया कि नवाब की प्रजा किसी प्रकार की शिकायत न करे । एक तरफसे कपनीकी बेहूदी मॉगों को पूरा करते करते नवाबका कोष खाली हो गया और फिर नयी नयी मांगोंको पूरा करने (और वे तो पूरी होनी ही चाहिये) नवाब कहीं रियायापर बोझ डाले तो कपनी नवाबको उसके कुप्रबंधके लिए कोसती, क्यों कि जनता सचमुचही नये करोंसे असतुष्ट थी; इस तरह नवाबके शासनको अग्रेजोंने अपाहिज-सा बना डाला! किन्तु कहीं दूसरी ओर अवसर देखकर अन्यायका विरोध करते हुए राजनैतिक सुधार प्राप्त करनेको जनता सगठित हो उठती, तो वहाँ जनताके सगठनको कुचलनेके लिए 'आश्रित' अंग्रेजी सेनाके हाथमें रही संगीनें तथा तलवारें हमेशा सिद्ध थी और फिर भी कंपनी आखीरतक यह आग्रह करती रही कि राज्यका कोई जीव शिकायत न करे। वास्तविकता यह थी कि यदि राज्यप्रबंध में सच्चा सुधार तथा असरकारी सुधार होना आवश्यक था और प्रजा को सुखी करना था, तो सबसे पहले ब्रिटिश रेसिडेंट को वापस बुलाकर नवाब को अपने अंतर्गत कारोबार में पूरी स्वतत्रता देनी चाहिये थी। किन्तु सब कुछ इसके विपरीत हो रहा था, जिस से प्रजा के असंतोष का दोष पूरी तरह कपनी के सिर आ पडता है ।*

  • चार्लस बॉल कृत इडियन म्यूटिनी खण्ड १ पृ. १५२.