पृष्ठ:२१ बनाम ३०.djvu/१२

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परन्तु अानों पाले देख सकते हैं कि देश की राष्ट्रीयता के दय में जो दुघर्ष रोप उत्पन्न होगया है वह लाला जी के माणों का मोल है और यह सम्मष ही नहीं हो सकता कि महात्मा जी अपने प्राणों पर पेक्ष जार्य और देश का पाता- पण सोसा रहे । अव कठिमता यह है कि महात्मा जी जो कुछ करने वाले हैं उसे वितकुल उन्हीं की परति पर मादि से अन्त तफ निबाहना इस समय देश का शकि से बाहर है, ऐसी अचानक विपत्तियाँ जो आज देश के सिर पर सवार है, और ऐसी प्रचंड धाधा जो उसकी स्वाधीनता के मार्ग में मड़ी हुई है कोष और अषिचार से नहीं दूर की जा सकती। उसके लिये पड़ा भारी स पम, अवरदस्त धैर्य और अघल सहिष्णुता की प्रापश्यक्ता हैनो देश में ही नहीं। 'महात्मा जी की पह घोषणा परो तेजी से समुद्रों को धीरती और पवती को लांघती हुई संसार के दरवाज़ो पर पहुंच गई है और प्राज सारा स सार भारत को अघामी और बुढ़ापे के ऐक ही पण केस निश्चय को क्रियात्मकरूप में देखने को उत्सुफ है । ससार पर और खास कर प्रिटम पर यह घटना कितनाब प्रभाष रखती है इसका परिचय एक ग्रिटिश पत्र यह कहमे से मिलता "भाममारत से हमारी संसाठगई लाहौर के राष्ट्रीय समा के अवसर पर जो धकम्य प्रगर किये गए यह संपात को स्पष्ट करते है कि देश की