पृष्ठ:२१ बनाम ३०.djvu/१७०

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नवां अध्याय अग्रेजों का भारत से महयोग मदा मनस्यो अपि दयानन्द सरस्वती अपने व्याख्यानों में हुपा कहा करते थे फि"भाई। पहले मूसों से पक्षा पा ग-सो छुटकारा पा गये, पर अय की धार पुसिमानों से क्षिा पड़ा है, ष्ट म सकोगे-जय तक युरिमान न बनोगे।" रपि दयामम्द का खयाल सच था कि मुसलमान मूर्स मे, थे परत को असियि-सस्कार करने वाला, परिश्रमो, पीय, धनो गदि देख कर मी इस पर मोहित नहीं हुए-अपनी धुन में घे होकर वयपर मार-माट मचाते रहे-और पोर बैमनस्य बोम पोया-तिस पर पही भाकर बस गये। अन्त में उम अधिकार दिन गये। परन्तु अंग्रेज़ ऐसे मूर्ख महीं है। अपने में पे अच्छी तरह चारों तरफ से किया याद कर बैठे है-- ई मप या पतरा उन से बहुत दूर है। यहाँ पाकर उन्होंने अस्याबारियों का साथ नहीं दिया, पीरितों का साथ दिया रख लिये प्रज्ञा एनफी तरफ सकी । प्रथम कौतूहल से, पीछे ।