पृष्ठ:२१ बनाम ३०.djvu/१७१

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3 > ( १५८ ) आशा से, फिर भय से। अंग्रेजों ने प्रथम भारत रण का दोन दिमाया और दोनों पक्ष से मदलव बना कर पन्दर पर वारा किया-दोनों के भाग में से कतर लिया। वह समय ऐसा था कि अविचारी लोग बढ़ गये थे-सामाजिकता को भूब गये थे। दिल्ली के सम्राट अपने अत्याचार का फल भोगने लय, ये और उन पर और उन का प्रजा पर कठोर दक्षिणियों की बराबर मार पर रहो यो । राजपूताना और खास कर मेवा जो वरावर मुगल शति का सामना करते करते चूर हो गया था, मराठों की मार से व्याकुल हो उठा था, वीरता बढ़ा हो चुकी यो, भोज मर रहा था, सहनशक्ति थक चुकी थी, सीसो दिया कहाँ तक सहते ? काई सहायक न था, पड़ोसियों की अशा यह थी कि हर साये बैठे थे। सव के मन में गुमाम था कि हमारी तो नाक फट गई, उदयपुर सूत्रा कैसे बचा ! उदय पुर को श्वेत पगड़ी पर किसी भी स्वार्थी के हाए का काला छींटा पड़ता कि लोगों के कलेजे हे होते थे। बदला मिला, दोप किसे दे । निरन्तर अपमान और ठोकर खाकर सहने की और सह कर सन्तुष्ट रहने की मादत पड़ ही जाती है । पूर्व के प्राप्तों में सूपेदार लोग सच्छ,खल नषाव बन बैठे थे और शराब तथा ऐयाशी में छपे रहते थे। प्रजा रंजन एक मोर रहा प्रमा पालन मी उन से ठोक ठीक न होता था । वल और स्वेच्छा सारिता थो, पर और इतनी थी कि टुकड़े टुकार थी। नहीं तो