पृष्ठ:२१ बनाम ३०.djvu/१७२

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( १५६) रित का यहीं अन्त था। दक्षिणा के मराठे अपनी गाँठ भरमे 1 घुम में मनुष्यत्य को तिलांजली दे रहे थे। घे कुपित वाद- ह पर थे और दएड देते थे प्रजा को । घगष्ट मी क्या, पारन करते थे । पजाप का दशा और भी घुरो था । पर के ऊपर एफ थात थी। प्रजा में इस आपस की अशान्ति र मय मे कुछ गुण उत्पन्न कर दिये थे-वह धीर, स्याषतम्या र सहम शक्ति पाली तथा पीट हो गई थी। इस के सिया के जोयन-मिर्याह की विधियां बहुत सरल थी । व्यापा- एनों का सृष्टि नहीं हुई यो । खाने पीने और व्यवहार की तुर' माने पीने और व्ययहार के ही काम में मुख्य-रूप में नी और माना जाती थीं-धन्धे और कमाई के रूप में महीं। ति में प्रख्यात जालिम नाव शाइस्तस्ना क समय में रुपये पाठ मन चाधन विक्से थे । जिस सिपाही की एक रुपये मी सनस्सा थी यह पाठ पाने में परियार भर को तर पुलाव जा कर पाठ पाने बचा लेता था। समाट् अफयर फे राज्य पभर को तनखा दो पैसा रोज़, और उत्तम स्वाती की सात पेश थी । परम्सु माय मध्य इसने सस्ते थे कि पान मबर २० रोज और कारीगर ४) रु. कमा कर भी सतना सुनो सकता है। । 1