पृष्ठ:२१ बनाम ३०.djvu/१८०

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9 2 सिबा) पुनाई की केवल १४ पाई सर्च होती है। पर उतने दो ( १६७) कारोगर को मिला जिसने मशोन बनाई और श्रामद उस धनो 1 की हुइ जिसने उसे खरीद कर सदी किया। बेचारे कारीगरों का यदि इसमें कुछ लाम हुआ तो इतना कि ये कारीगर से मदर बन गये-स्वच्छन्द से गुलाम बन गये । पहले प्रत्येक को अपने बुखि वन की अमरस पडती थो। अब ये मधोम की पुतला बन गये। कारागरा मूल गये। कहा जाता है कि विलायत का एक कारोगर हिन्दुस्तानी ६ या कारागरों के बराबर काम करता है। संकाशावर में कपड़ का मिला में एक "कामदारी प्रकला से करमों को पहाता और सम्मालसा है। यह भी हफ्ते ५५ षटे काम करके रकर से हर दर ७५ पीस (प्रायः ३८ सेर)बजनका मोटा कपड़ा तैयार करता है। उसका ६ फरमों का काम सब मिना कर हर हफ्ते में ४६ पीर बलम में होता है। परंतु हिन्दुस्तान की मिलों में काम करने वाला कामदार सिर्फ एक करघे को ही सम्भाल सकता है और अधिक से अधिक ६० पौर मोटा कपड़ा तैयार कर सकता है, यद्यपि काशापर और यहाँ की मेशागरी एक ही समान है। परिणाम यह होता है कि पद्यपि विज्ञायत की अपेक्षा यहाँ मजूरी बहुत ही सस्टी है, पर तो भी विनायत में कपड़ा पुनने का मर्च बहुत कम पड़ता है। एक पौर (प्राधा सेर) मोटा कपडा धुनने में (स्वागत के