पृष्ठ:२१ बनाम ३०.djvu/२०४

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( {EE ) जा दिम गर पसीमा पदापर कुछ पैसे पैदा करते ई पोर शाम कर अपर की दुकान पर मोरो फा पानी पो कर छ्छे हाथ घर भाते हैं। और उनके खवच्चे जो दिन भर मेंह का सो प्राथा लगाये घेठ रहते थे कि वाया फमा कर पैसे लायेंगे तो रसोई बनेगी, देखते हैं वाया भाये है, पर दूसरे ही क्षण में उन को पाह इसी बरसाती धूप की तरह उट आती है, जव पे यह देसने है कि याया आये तोपर ये होश, पागल और पशु दुए है-गांठ क पैसे का पिशाप पा आये है-मोरी के पानी, उल्टी और मैले में शरीर भरा है। क्या जिस प्रजा के घणु में ऐसे भयंकर दृश्य नित्य हो यह प्रजा किसी सभ्य प्रजा के शाशन के अधीन काला सकती है। कदापि नहीं। कैसी दिल्लगी की पात है कि जहाँ एफ तरफ शराप के दुकानदारों को सरकार ने गुफ्म दे दिया फि बाजा में दूफाने बोलो और खुम-तुमा यह गन्दा घणिप्त अहर पेचो और तमाम प्रजा को यह स्यातन्त्रय दे दिया कि जिसका जी चाहे पीओ और जिवना जी में प्राये पीभो। यहाँ तक तो काम कायदे सिर हुमा, पर इस के भागे एक और काम हुभा कि सरकार ने पुलिसवालों को स्टे लेफर मा कर दिया और उन्हें कह दिया कि रंश लिये तैयार खड़े रहो ! अब कोई इस भयंकर दूकानमें घुसेतो मत पेको । जब धारनदार यह भयंकर अहर ब भी मत पेको । और 1