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बलकान राष्ट्र–समूह
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युद्ध और, अन्ततोगत्वा, पिछले महायुद्ध के कारण भी इनको विशेषता प्राप्त है। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में बलकान-राष्ट्र-समूह बराबर एक ख़तरे का स्थान रहा है। बलकान राज्यों और पूर्वकालीन रूसी तथा जर्मन-आस्ट्रियन-साम्राज्यों में काफी संघर्ष रहा है। उत्तर में आस्ट्रिया-हंगेरी-साम्राज्य के छिन्न-भिन्न हो जाने से उनकी महत्ता बढ़ गई, परन्तु जबसे आस्ट्रिया तथा चैकोस्लोवाकिया का हिटलर ने अपहरण किया, तब से इनके लिये ख़तरा पैदा होगया। बलकान राज्यों का महत्त्व उनकी कृषि, खनिज-उद्योगों तथा युद्धोपयोगी मोर्चे की विशेषता के कारण है। वे एशिया के स्थल-मार्ग पर स्थित हैं और उनमें होकर पूर्वीय भूमध्य-सागर पर आधिपत्य रखा जा सकता है। जर्मनी इन राज्यों पर—पहले अपने मित्र आस्ट्रिया द्वारा और अब स्वयं-नियंत्रण करने के लिये सदैव लालायित रहा है। वह अपनी महत्त्वाकांक्षापूर्ण बर्लिन-बग़दाद-लाइन की योजना द्वारा मोसल के तेल के कुओं तक और आगे भारत तक जाने के सुखस्वप्न देख चुका है। सन् १९१४ तक रूस जर्मनी की इस आकांक्षा-पूर्ति में बाधक रहा। सन् १९१८ से '३९ तक बलकान राज्यों में रूस का कोई प्रभाव नहीं रहा। परन्तु १९३९-४० में, पश्चिम की ओर बढने से, रूस का फिर बलकान में प्रभाव बढ़ने लगा है। वर्तमान विश्वयुद्ध के प्रारम्भिक काल में जर्मन, अतालवी, रूसी और बरतानवी प्रभाव बलकान-राष्ट्रों में आपस में टकराते रहे। बलकान के आधे वैदेशिक व्यापार पर जर्मनी ने, इस युद्ध से पूर्व ही, नियंत्रण प्राप्त कर लिया था और राजनीतिक प्रभाव भी। रूसी प्रभाव का आधार था बलग़ारिया और यूगोस्लाविया में 'पानस्लाववाद' की पुनरावृत्ति। किन्तु जर्मनी ने अक्टूबर '४० में रूमानिया और '४१ में बलग़ारिया पर, बिना किसी विरोध के, कब्ज़ा कर लिया। इटली ने अक्टूबर '४० में यूनान पर हमला कर दिया। अप्रैल '४१ में जर्मनी ने यूगोस्लाविया और यूनान दोनों पर हमला करके, कुछ दिनो के युद्ध के बाद, उन पर कब्ज़ा कर लिया। रूस-जर्मन-संबंध, इस कारण, पहली बार बिगड़े और अन्त में जून '४१ में रूस पर जर्मनी ने हमला ही कर दिया। पिछले बीस सालों में इन राष्ट्रों का उद्योगीकरण हुया है, फिर भी ८० फीसदी जनता खेती और पशुपालन पर आश्रित है। जनता