से निर्वाह। मित्र-राष्ट्र यह चाहते थे कि रूस जर्मनी पर आक्रमण करे। ब्रिटेन से उसे मदद न मिली और रूस को अकेले ही जर्मनी से लडना पड़ा।
रूस की जनता महायुद्ध से पीडित थी और वह जल्द-से-जल्द उसका अंत करना चाहती थी। पीत्रोग्राद मे एक सस्था का जन्म हो चुका था जो मज़दूरो तथा सैनिको की प्रतिनिधि थी। इसका नाम ‘सोवियत’ था। इसने स्टाकहोम में समाजवादियों के एक अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन के आयोजन की मॉग की। बर्लिन में जनता अन्न-कष्ट से दुःखी थी। जर्मनी और आस्ट्रिया युद्ध से त्रस्त थे। इसमें कोई शक नही कि यदि यह सम्मेलन सफल होजाता, तो सन् १९१७ मे प्रजातत्री ढग पर शान्ति स्थापित होजाती और जर्मनी मे क्रान्ति का उदय होजाता। करेस्की ने मित्रराष्ट्रों से कहा कि वह उस सम्मेलन को होजाने दे। किन्तु मित्रराष्ट्रो को यह भय था कि इससे समाजवाद का व्यापक प्रभाव बढ़ जायगा। इसलिए समाजवादियो का यह सम्मेलन न होसका। फिर भी मित्रराष्ट्रो की नैतिक और भौतिक सहायता के अभाव में रूसी सेनाएँ लडती रही। जुलाई १९१७ में इनकी सेना ने आक्रमण किया। परन्तु इसके बाद रूसियो की भयानक ढंग से हत्याएँ की गई।
इससे रूसी सेनाओ मे विद्रोह पैदा होगया और, ७ नवम्बर १९१७ को, उन्होने करेस्की की सरकार को उलट दिया तथा सोवियतों ने शासन-सत्ता पर अधिकार जमा लिया। बोलशेविको (साम्यवादियो) का बाहुल्य था। लेनिन इनके नेता थे। लेनिन ने जर्मनी के साथ, २ मार्च १९१८ को, ब्रैस्तलितास्क मे सन्धि करली। इस सन्धि की शर्तों द्वारा रूस को बहुत दबना पडा, किन्तु उथल-पुथल की दशा मे, इस सन्धि पर ही रूसियो ने सन्तोष माना।
रोजनबर्ग, अलफ्रे़ड―जर्मन नात्सी दल का प्रमुख सिद्धान्त-निर्माता और विचारक; १८९४ मे पैदा हुआ; पिछले युद्ध में रूसी सेना में रहा, युद्ध के बाद जर्मनी वापस आया। नात्सो-आन्दोलन के प्रारम्भिक-काल में हिटलर का सहयोगी बनाट। उसने “बीसवी शताब्दि की गाथा” (The Myth of the Twentieth Century) नामक पुस्तक लिखी, जिसमे नात्सी सिद्धान्तो का विवेचन है। वह गाथा क्या है, यही कि ‘नार्डिक’ नस्ल सबसे आला है, राष्ट्रीयता सर्वोपरि सिद्धान्त है, और जर्मनी को समस्त