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दोला। सुपने में सुष उपजा जागत बलु रुष दीन । मनो करद की काटिके टूक करेजा कीन॥ चौपई। जागत ही उपज्या दुष भारी। मानो उर लागें केबर कारी॥ कुंवर अनूप मेरे लोयन लागी। पलक न लगी सबै निस जागी॥ कहा कहीं कछु कयो न जाई। प्रान नादि अ अंतर मानी ॥ स्वास लेत पिंजर डिगमगई। छिन अचेत छिन जीवत मरई ॥ सषी मोहिजो मस्त जिवावो। वह मूरति मोहि लिषि दिषरावो॥ सोरठा। रुधिर न यो सरीर प्रेम मगन भई सुंदरी। का जामे पर पीर जिहिं घट बिल न संचरे॥ - चौपई। चित्ररेषा बोली सुनि बारी। धीरज धरि मन मालिं पियारी ॥ तीन लोक छबि लिपि दिषराउं। तू परिचानि पकरि मे ल्याउं॥ लिषे कुंवरि तब तीनो लोका। केंद्र आदि देव देव बिबेका॥ गन मंधव मुनि लिषे जु जछ। सुर सब कीने बरे बिलछ॥ . इन में नही कहे बर नारी। लिषे कोटि तेतीस कुंवारी ।। दोला। तीन लोक बलुबिधि लिषे अति बलुरूप संवारि। तिन मे निरषे सुंदरी नांही प्रान अधारि॥