पृष्ठ:Garcin de Tassy - Chrestomathie hindi.djvu/१११

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॥५॥ चौपई। बारि लिष्यो भुवलोक बनाई। लिषी द्वारिका पुरी सुहाई॥ लिष्यो कृष्ण त्रिभुवन को रामा। तिने देषि का उपजी लाजा॥ बहुरि लिष्यो पदोन कुंवार। श्री अनुरुद्ध काम अवतारू॥ निष्यो कुंवर देषि मम चीना। लाय प्रीति फेरा नहिं कीना ॥ तब जाना अनुरुद्ध कुमारू। यहे प्रान जीवन अाधारू । होला। सुंदर मूरति कर लई तन की तपति सिरानि। देषि रूप चक्रत भई बुरि मिले दिग श्रानि॥ चोपई। लिपि मूरति उषा को दीनी। सुंदर दोउ नेन भर लीनी॥ यले सषी र लीन भंडारा। मेही जीवन मूर हमारा ॥ कले सषी सुनि रामकुंवारी। यहे चोर बरा मति मारी ॥ चित्ररेष कहे आपा पाई। बेग नि जाय कुंवर ले बाउं॥ तब ही चलि उठि सषी सयानी। पुरी द्वारिका प्राय तुलानी॥ दोला। कमक स्तन मंदिर दियें दीसें धजा अपार। पुरी संचार न पावहीं मन मे करे बिचार॥ - चोपई। पुरी न पावे बेग संचारी। चक्र सुदरसन के रपवारी॥ छल बल जतन करे बलुतेरे। ते सब कछुव न श्रावें नेरे॥ मंत्र जंत्र बलु भांति बनावे। भीतर नगर जान नहिं पावे ॥