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॥४०॥ रुक्म को तो खोल समझाय बुझाय अति सिष्टाचार कर बिदा किया। . फिर हाथ जोउ अति बिनती कर बलराम सुखधाम रुक्मिनी जी से कल्ले लगे कि हे सुंदर तुम्हारे भाई की जो यह दसा हुई इस में कुछ हमारी चूक नहीं यह उस के पूर्व जन्म के किये कर्म का फल है और यात्रियों का धर्म भी है कि भूमि धन त्रिया के काज करते हैं युद्ध दल परस्पर साज। इस बात का तुम बिलग मत मानो मेरा कहा संध ही जानो। हार जीत भी उस के साथ ही लगी है और यह संसार दुख का समुद्र है यहां प्राय सुख कहां पर मनुष माया के बस हो दुख सुख भला बुरा हार जीत संयोग बियोग मन ही मन से मान लेते हैं पै इस में लष शोक जीव को नहीं होता। तुम अपने भाई के बिरूप होने की चिंता मत करो क्योंकि सानी लोग जीव अमर देह का नास कहते हैं इस लेखे देह की पत जाने से कुछ जीव की नहीं गई। जब बलराम जी ने ऐसे रुक्मिनी को समझाया तब सुनि सुंदरि मन समझके किये जेठ की लाज । सैन माहिं पिय सों कहत हांकनु रथ ब्रज राज ॥ बूंघट नोट बदन की करे। मधुर बचन हरि सों उच्चर॥ . सनमुख ठाठे हैं बलदाउ। अहो कंत रथ बेग चलाउ॥ इतना बचन श्री रुक्मिनी जी के मुख से निकलते ही इधर तो श्री रूपचंद जी ने स्थ द्वारिका की ओर लाका प्रो उधर रुक्म अपने लोगों