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॥४६॥ हमारी तो स्ले की यह रीति है तुम्हारी कन्या को निबाह केसे होयगी। सुता को तिन के पास छांडि बिप्र चलो गयो। जयदेव ने वा कन्या सों पूच्यो तुम्हारी कहा विचार है। तिन कही जबलों पिता के घर रही तबलों तिन के बस मों रही अब पिता आप को सौपि गयो है जो कहो सो करें जो अंगीकार नहीं करोगे तो बिना प्रान छाडे टूसरो ठोर कहां है। यह सुनि जयदेव ने सोच में है जान्यो प्रभु ने जोरावरी तिया गरे बांधी। मन सों बिचारि बूझने लगे मन हूं अंगीकार करि लयो तब जयदेव ने बिचायो जो अब तो या भांति रहते बनेगो नहीं छाया बनाई चाहिये। घर बनायो गृहस्थ भये तब राधा माधव ठाकुर ने स्वप्न दियो जैदेव जू गृहस्थई पूरी भई अब हम ही भारी हैं जो बालिर परे हैं। प्रभु के भारी करने पर जयदेव ने ठाकुर को घर में प्रानि पधरायो। बिचार कियो कछु इन को जस बरनन कियो चाहिये। तब गीतगोबिंद यंथ बनायो मान के प्रसंग मों यह पद धयो। पद। स्मरगालखण्डनं मम शिरसि मण्उनं देहि परपल्लवमदारं ॥1 या को अर्थ कामरूपी बिष नाशन मेरे शिर को आभूषन ऐसो उदार पग पल्लव दीजिये। फिर मन में भायो कि या पद में बिरोधाभास लोय के नायक के गुन यह दें। 1 Ce vers se trouve dans le texte sanscrit du Gita Govinda,x, 19. En voici la traduction latine littérale, telle que la donne M. Lassen : Impone generosum surculum pcdis, amore progenilos dolores frangentis, capiti meo tanquam ornamentum.