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पृष्ठ:Garcin de Tassy - Chrestomathie hindi.djvu/७५

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॥५॥ समझाय हारे बातनि सों मन तू समझि कहा के । बोले द्विज बालकी सों आपनों बिचारि करो धरो जात न संभारी है। बोली कर जोरि मेरो जोर म चल । लोलु यह बारि फेरि उरी है। जानी जब भई तिया : पे तो पे एक झोंपरी की छाया करि लीजिये। भई । सेवा पधराय लई नई एक पोथी मे बनाई मम कीजि । गीत सरस गोविंद जू को मान में प्रसंग सीस मंउन।। एक पद भुष निकसत सोच पखी धखो कैसे जात . शझिये। नीलाचल धाम ता में पंडित नृपति एक । धरि पोधी सुषदाईये। द्विजन बुलाय कही वही है ! : लिषि पठो देस देसनि चलाईये। बोले मसिकाय बिग्र : दई नई यह कोउ मति अति भरमाईये। धरी दोउ भरि । जू के दीनी यह उारि वह कार लपटाईये। पखो सोच । पिसानी भयो गयो उठि सागर मे बूढ़े यही बात है। कियो कियो में बषान सोई गोई जात केसे पांच ला श्रामा प्रभु दई मति बूडे तू समुद्र माझ टूसरे न प्रष्ट । पात है। द्वादश श्लोक लिषि दीजे सग द्वारस में त. ' की ष्यात पात पात है। सुता एक माली की जु बैगन । तोर बनमाली गावे कथा सर्ग पांच की। रोले जग । अंग मिहीं भंगा प्राछि गहि चूमे सुधि अावे बिस्तर पट देषि नृप पूछी अलो भयो कहा जान तन म । सांच की। प्रभु ली जनाई मन भाई मेरे वही गाथा ल्य ।