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॥७३॥ तुलसी दास। मूल। कलि कुटिल जीव निस्तार हित वाल्मीक तुलसी त्रेता काव्य निबंध करि सत कोटि रामायण। ईक अक्षर उद्धरे बालत्यादि परायण ॥ अब भक्तनि सुष देन बरि लीला बिस्तारी। राम चरण स्स मत्त स्टत अन निसि ब्रतधारी॥ संसार अपार के पार को सुगम रूप नोका लयो। कलि कुटिल जीव निस्तार हित वालमीक तुलसी टीका। तिया सौ सनेहि बिनि पूछे पिता मेल गई भूली सुधि देव ठोर आये है। बधू अति लाज भई रिसि सों निकस गई प्री तन लाउ चाम छाये है। सुनि जब बात मानी लोय गर्य पाछे पछितात तजी कासी पुरी धाये है। कियो तहां बार ले प्रकास कीनी लीनो टूक भाव नेन रूप के तिसाये है। सेस पाय भूत तू बिसेस कोड बोल्यो सुष मानिल्लुमान जू रामायण कथा सो रसायनि है काननि कों पावत प्रथम घ्राण जाये है। जाय पहिचानि संग चले उ प्रानि पार जान धाय पाय लपटाये है। करे सीत कार कही सकोगे तो जाने रस सार रूप धरो जैसें गाये है। मांगि लीजे बर राम भूप रूप अति ही अनूप नित नेनन अभिलाषिये।