पृष्ठ:Gyan Kosh vol 1.pdf/१३९

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गत हो गया।कोंडाजीने यह समचार गुप्तचरों द्वारा शिवाजी के पास भिजवा दिया। शिवाजी के आठ दिन आने तक अण्णाजी वहीं रहे। इस भांति पन्हाला पर दो बार विजय प्राप्त की गई और सत्रहवीं शताबदी के अन्त तक वह मराठोंके ही आधीन रहा। इसी वर्ष शिवाजीके राज्या भिषेकके समय शिवाजीने अपने अष्ट-प्रधानोंको सब काम बाँट दिया| अण्णाजीको चेऊलसे लेकर दामोल तक राजापुर, कुडाल, बाँदा और फोंडा अकोल तक-सारांश समस्त दक्षिण कोंकण की व्यवस्थाका भार सौंपा। इसके अतिरिक्त-व्यवस्था पहलेकी भाँति उसीके आधीन रही। इल्लागिरी ताल्लुके की जमीदारी तथाथ कोल्हापुर इलाके के भूधरगढ़के निकट सामानगढ़ भी अण्णाजी को दे दिया गया था। कहा जाता है कि अण्णाजी ही ने सामानगढ़ बनवाया था। दक्षिण कोकनकी व्यवस्था अण्णाजीके ही हाथमें होने के कारण समुद्रतटकी देख-रेख भी इन्हें ही करनी पड़ती थी।

इसी कारण योरोपीय व्यापारियोंसे उनका सम्बन्ध सदैव घनिष्ट रहा। वे अण्णाजीको  अण्णाजी पण्डित सूबेदार के नाम से सम्बोधित करते थे। ५ जून १६७४ ई० को जब शिवाजीका राज्यभिषेक हुआ था तब राज्यकी भीतरी व्य्वस्था अण्णाजी ही करते थे। अतएव शिवाजीके शीश पर राजक्षत्र सुशोभित कररने का सम्मान इन्हीं को प्रदान किया गया था। उस अवसर पर उन्हें बादली (वस्त्र विशेष), पोशाक, कराठी, चौकड़ा (बाला) सिरपेंच, कलगी, कटार,ढाल,तलवार, हाथी, घोड़ा आदि देकर गौरान्वित किया गया था।अण्णाजीको पालकी के व्ययके सहित १०,००० होणा (३००० रुपया)ऩगद वेतन मिलता था। अण्णाजी राज के पत्रों पर जो अपनी मुहर करते थे वह अष्ट्कोण, बड़ी तथा लम्बी थी। उसमें निम्न ४ पंक्तियाँ अंकित थी। (९)श्रीशिवचरणी (२)निरन्तर दत्त (३)सुत अनाजिपंत (४)तत्पर । इन चारोंको मिला कर पढ़नेसे अर्थ निकलता हैः श्रीशिवाजी के चरनणोँमें निरन्तरदत्त सुत अनाजिपंत सदा तत्पर ।लेख स्माप्त होने पर और लिफाफेके जोडों पर व्यवहारमें लाई जाने वाली मोहर छोटी तथा गोल थी। उसमें निम्न शब्द अंकित थे(१)नाव धि रे (२)धते (अर्थात् लेखना वधि रेधते) १६७४ ई० में फिर शिवाजीने भूमिनिरी-क्षण प्रारम्भ कर दिया और अण्णाजीके ४ या ५ वर्ष इसी कार्य में बीते थे। इसी बीचमें शिवा-जीने अण्णाजीको मालवे भेजा था। १६७८ ई० में जब शिवाजी स्वयं कर्नाटक गये थे तब इन्हें राज्य-प्रबन्धके लिए छोड़ गये थे। अण्णाजी प्रायः राजगढ़में ही रहते थे। जिस समय में वे गाँवोंके निरीक्षणके लिए बाहर जाते उस समय उनके सहायक सब कामोंको करते थे।
 गाँवोंके कर्मचारी भूमिनिरीक्षणमें अवसर भूल करते थे जिससे राज्यको विशेष धक्का पहुँचता था। इसलिए अण्णाजी स्वयं परिश्रम करके गाँवों में घूमते, भूमिनिरीक्षण करते तथा कर निश्चित करते थे। इस प्रकार राज्यकी आमदनी बढ़गई: भीतरी व्यवस्था सुधर गई और साथ ही साथ अण्णाजीका उत्कर्ष भी खूब हुआ| इस कारण कई बड़े तथा योग्य व्यक्तियों और अण्णजीसे अनबन होगई । कुछ लोगोंने शिवाजी से ज़मीनके लगान और गावोंके झगड़ोंका निपटारा स्वयं करनेके लिए प्रार्थना की| परिणाम यह हुआ सब भूमिके फिरसे निरीक्षणकी आझ शिवजीने दी। उसीके अनुसार शिवाजीके राज्या भिषेषके बाद भूमि.निरीक्षण प्रारम्भ हुआ। इस बार भी दादाजी की ही कर. पद्धति स्वीकृत हुई परन्तु ऋतु परिवर्तनसे थोड़ा बहुत सिकुड़ने वाले रस्सीके स्थान पर राजाके हाथसे ५ हाथ ५ मूठ लम्बी लाठी लम्बाई नापनेके लिए प्रयुक्त की जाने लगी। शिवाजीके आजानु बाहु तथा राजा होने के कारण कोई भी इस नापके विरुद्ध आवाज न उठा सका । उपजका ६ भाग कर नियत किया गया था, किन्तु कर अन्नके रूपमें न लेकर नगद सिक्कों में ही लिया जाता था। इस समय जा कर निश्चित किया गया था वह स्थायी था। ऊसर भूमि पर भी कर लगाये जानेके कारण लोग उसे भी खाद देकर उपजाऊ बनानेका यत्न करने लगे। निर्जन स्थानों पर नये लोग बसाये गये । उन्हें बोनेके लिए बीज, मवेशी और धन दो वर्ष की मुद्दत पर देकर ज़मीन उपजाऊ बनानेका प्रयत्न किया गया। दुर्भिक्षमें भी धन और मवेशी दिये जानेके कारण स्थायी-कर-पद्धतिके प्रतिकूल कोई न था। कर नियत करते समय अण्णाजी ने विभिन्न गावोंको जो आञा-पत्र दिये थे उनसे बात होता है कि पहिले कर मुनीम तथा गाँवके अन्य अधिकारी पिछले दो वर्ष की उपज पर तथा गाँव्के बड़े आदमियों की सम्मतिसेही निश्चित किया गया गया था। इस कार्यमें गाँव के मुख्य लोग भी सहायता करते थे। इस प्रकार कर नियत किये जाने पर

अण्णाजी को उसकी सूचना दी जाती थी। तब अण्णाजी स्वयं जाकर जाँच करते थे और यदि निश्चित कर राजा तथा प्रजाकी दृष्टिसे हानि-कारक न होता तो अपनी स्वीकृति दे देते थे। ऐसा करते समय अण्णाजी व्यक्तिके हितकी और ध्यान न रख सके। फलतः उन्हें बहुतों का द्वोषभाजन बनना पड़ा। मोरोपन्तपिंगले पेशवाके सम्मुख समस्त रज्य्के लिये उत्तरदायी थे, और कई बार उन्होंने अण्णाजीके विरुद्ध निर्णय किया था। बहुधा शिवाजी भी उसे ही मान्य रखते। इस कारण अण्णाजीके विरुद्ध निर्णय किया था। बहुधा शिवाजी भी उसे ही मान्य रखते। इस कारण अण्णाजी मोरोपन्त्से द्वेष करने लगे, और इन दोनोँमें मनोमालिव्य हो गया। शिवाजीके अभिषेकके समय मोरोपन्तके विरोध करनेके कारण अण्णाजीको स्पष्ट रूपसे बदला लेनेका अवसर हाथ लगा। अण्णाजीके राज्य की भीतरी-व्यवस्थामें हस्तक्षेप करना पड़ता था, जिससे कुछ लोगोंकी हानि होती थी। इसका परिणाम यह हुआ कि जितना ही अण्णाजीधाक जमानेका प्रयत्न करते थे उतने ही छोटे छोटे अधिकारी तथा प्रजा गए उनके विरुद्ध होते जाते थे।

 हिन्दुओंमें उत्तराधिकारी का प्रश्न ही सब अनर्थों की जड़ रहा है और इसीसे अनेक भयंकर कलहोंका बीजारोपण होता रहता है। इसमें सन्देह नहीं कि जब समय उत्तम रहता है ओर उन्नतिके पथपर अग्रसर होते रहते हैं उस समय यह प्रश्न फिर से उठ आता है। सर्वगुणसम्पन्ना तथा नम्र सई बाईकी मृत्युके पश्चात् राजारामके जन्मके कारण जो गृह कलह उत्पन्न हुआ था वह जीजाबाईके कठोर शासनमें पूर्णरूपसे दब चुका था, किन्तु शिवाजीके राज्याभिषेक तथा सम्माजीके युवराज बनानेके समय इसका फिरसे प्रादुभाव हुआ। जीजाबाईकी मृत्युके पश्चात् तो शिवाजीके घरानेमें पूरी उच्छृहन्लता फैल गई। अण्णाजी स्वभावतः उच्चाभिलाषी तथा बुद्धिमान् था, किन्तु न तो वह वीर ही था न युद्ध-कार्यमें कुशल ही। इस कारण सदा षड्यन्त्र रचनेका प्रयत्न किया करता था। शिवाजीके सदा साथ रहने के कारण तथा रायगढ़में भी बहूत रह चुकनेसे इन सब बातों से यह पूर्ण परिचित था। सोयराबाई का पक्ष उस समय बलवान होनेके कारण उसने उसी क पक्ष और उस पर अपना प्रभुत्व जमा दिया। संभाजीके विरुद्ध शड्यन्त्र रच कर उसे नालायक साबित करनेके लिये सोयराबाईको अण्णाजी बहुत उपयुक्त जान पड़ा। अतः उसने भी इसका पूरा पूरा स्वावगत किया। शिवाजीके कर्नाटककी और प्रस्थान करने पर इस गुप्त षड्यन्त्रने खूब जोर पकड़ा और अन्तमें सभ्भाकजी को स्त्रीके साथ रायगढ् छोड़कर जाना ही पड़ा। शिवाजी ने लौटकर जब यह सब सुना तो सम्भाजीको बुलानेका प्रयत्न करने लगे। इस प्रतिदिन बढ़ते हुए गृह क़लहको दूर करने तथा हिन्दुराज्यकी नींव भलीभाँति जमानेकी चिन्तमें जब शिवाजी मग्न हो रहे थे तो उसी समय उनका स्वास्थय बिगड़ गया। शिवाजीका मरण्काल जान कर सम्भाजी की ओरसे भी गुप्त योजनाएँ की जाने लगीं। इस समय मोरोपन्त पिगले इत्यादि अनुभवी तथा योग्य पुरुषोंको शिवाजीने बुला भेजा। बालाजी भी इस समय वहीं पर था इस समय ये लोग हिन्दुराज्य की जाने वाली अधोगतिको सोच सोचकर इतने व्यग्र हो रहे थे कि ये क्षुद्रबुद्धि तथा सौतिया डाह से प्रेरित सोयराबाई तथा स्वलाभदत्त-चित्त अण्णाजीकी स्वार्थ परायणताको भलीभाँति न समझ सके। अतः उन स्वाभिभक्त प्रधान मण्डली तथा मंत्रियों के लिये इन दोनोंके विरुद्ध आवाज़ उठाना असम्भ्व था। इधर अण्णाजी इस बातका पूरा प्रयत्न करता रहा कि सम्भाजीको शिवाजीकी बढ़ती हुई अस्वस्थताका पता न लगे। उसने यहाँ तक व्यवस्था कर रक्खी थी कि शिवाजीकी मृयत्युका भी संवाद उस समय तक सम्माजीको न मिलने पावे जब तक वह उसी अवस्थामें कुछ न कर लिया जाय। शिवाजीकी मृत्युके १८ दिन पश्चात् २१ अप्रैल सन १९८० ई० को अण्णाजी ने सब अधिकार अपने हाथमें लेकर नौ दस वर्ष के बालक राजारामका 'म्ंचका रोह्ण' कराया और मोरोपन्तसे सन्धि करके सम्माजी को कैद करने लिये रायगढ़ से वह रवाना हुआ। अण्णाजीके इस उद्धत आचरण्से मोरोपन्तका अपने र्भावष्य जीवनकी भी शंका होने लगी और भि बढ़ गया। बालाजीके इनकार करने पर उसके पुत्र से पत्र लिखवा कर जनादन पन्त और हम्बीर रावको भी वह भेज चुका था। यदि वास्तवमें देखा जाय तो हम्बीरराव का राज्यमें जो पढ़ तथ प्रभाव था उस पर ध्यान रखते हुए अण्णाजी को बिना उसकी सम्स्ततिके  कोई कार्य करना उचित न था। किन्तु अण्णाजी का यह भी निश्च्य था कि हम्बीर