पृष्ठ:Gyan Kosh vol 1.pdf/१४८

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सबको लाया जाय और वह पत्र यदि चक्राभास के त्रिज्या के अन्तर्गत हो तो उस पर विद्युत्भार गिरेगा और यदि त्रिज्यान्तर के बाहर होगा तो विद्युत्भार बिल्कुल नहीं गिरेगा। इस भॉति उस दूसरे पत्र को हिलाकर यह जाना जा सकता है कि इन कणों का मार्ग चक्राभास है, किन्तु यदि इसी पत्र को त्रिज्यान्तर के बाहर ले जाकर विद्युत्क्षेत्र अधिक शक्तिमान किया जाय अथवा लोह चुम्बकीय क्षेत्र कम किया जाय तो भी इस पर बहुत से विद्युत्कण आ सकते हैं। त्रिज्यान्तर की ठीक ठीक गणना धातु के दूसरे टुकड़े को आगे पीछे हटाकर की जा सकती है। जिस स्थान विद्युत्भार का आना कम होने लगे उसी त्रिज्यान्तर को मानना ठीक होगा। यह अन्तर तथा पिण्ड-विद्युच्छक्ति इत्यादि का सम्बन्ध इस सूत्र में दर्शाया गया है। 2 ण॰ वि॰/व॰ ल। इसमें णत्रपिण्ड क्षत्रक्षेत्र की विद्युच्छक्ति वत्रपिण्ड का विद्युत्भार लत्रलोहचुम्बक की शक्ति (पृथ्वी की लोह चुम्बक वित्रडंहदमजपेउ) है। क्षेत्र की विद्युत्छक्ति तथा पृथ्वी की चुम्बक शक्ति मालूम हो जाने पर पिण्ड तथा विद्युत्भार का प्रमाण सरलता से निकाला जा सकता है। यद्यपि त्रिज्यान्तर की गणना ठीक ठीक नहीं हो सकती तथापि इस प्रयोग से निकले हुए पिण्ड और विद्युत्भार के प्रमाण का मूल थाम्सन के निकाले हुए 10 के बिल्कुल करीब करीब आती है। इन प्रयोगों में यदि कुछ भी विशेषता है तो यह है कि इनमें विद्युन्मापक विक्षेप के अतिरिक्त और कुछ भी देख नहीं पड़ता। यदि लेनार्ड की रीति से प्रयोग किया जावे तो पहले यह देखना चाहिये कि महÙमा विक्षेप कितना होगा और यदि थाम्सन की पद्धति से प्रयोग करे तो यह देखना चाहियें कि शून्य विक्षेप से विक्षेप विशेष तक किस प्रकार की गति है। 4 लेनार्ड के प/व प्रमाण की गणना करने का प्रयोग-इस प्रयोग में विद्युत्स्फुलिंग का तेज विद्युत्भारित तक तश्तरी पर गिरती है। तदनन्तर उसमें से विद्युत्कण बाहर आकर 'ब' नामक सरंध्र तश्तरी इसे 'इ' तश्तरी पर गिरते हैं। यदि ऐसे समय में उनके मार्ग में उचित रीति से लोह चुम्बक शक्ति छोड़ी जाये तो 'फ' तश्तरी पर उनका विक्षेपण होता है और वे गिरने लगते हैं। 'इ' तथा 'फ' दोनों ही भिन्न-भिन्न विद्युन्मार्गों द्वारा जुड़े रहते हैं। जिस समय 'फ' तश्तरी पर बहुत से कण आने लगते हैं वे उस समय इन विद्युत्कणों के चक्राभास मार्ग की स्पर्शज्या पृथ्वी के समान्तर पर रहती है और यह चक्राभास विक्षेप 'फ' तश्तरी के मध्य से जाता है। इतने ज्ञान से वक्रगति की त्रिज्या निकाली जा सकती है। लेनार्ड यह बात प×ग/व×ल सूत्र द्वारा दर्शायी है। इसमें पत्रपिण्ड: गत्रपिण्ड की गति: वत्रविद्युत्भार, लत्रपृथ्वी की लोह चुम्बक शक्ति। इनमें गति का माप 'क' और 'ब' इन्हीं दो भागों में है। अत: ये उनकी शक्ति के अन्तर पर हैं। और वह ख्प×गत्रय (श-श), सूत्र द्वारा निकाला जाता है। इसमें श व श दोनों ही विद्युन्मार्ग शक्ति के निदर्शक हैं। अर्थात् 'क' तथा 'व' के शक्ति-निदर्शक कहे जा सकते हैं। (श-श) से शक्ति का अन्तर दिखाया जाता है। इस भॉति गति, पिण्ड तथा विद्युत्भार के प्रमाण से दोनों की गणना की जा सकती है। यह पिण्ड तथा विद्युत्भार के प्रमाण का मूल्य (Value) उस समय का निकाला हुआ है जिस समय दबाव कम होता है। किन्तु यदि दबाव अधिक हो तो इनका मूल्य इसकी अपेक्षा कम हो सकता है। इससे यह विदित होता है कि कम दबाव के समय विद्युत्कण का संयेगा परमाणु से होता होगा। सादे वातावरण के दबाव के समय धन या ॠण परमाणु के अवयवों की गति वायु रूप द्रव्यों में भिन्न नहीं होती। इसके लिये विद्युत्क्षेत्र ही होना आवश्यक है। रेडियम से निकले हुए विद्युत्कणों की गति इतनी होती है कि उनके विषय में परमाणु के संयोग का भाग देख भी नहीं पड़ता। 5 अति परमाणु विद्युत्कणों की गति-धन वाहक की गति प्रत्येक सेकेंड में 10 सेंटीमीटर होती है और ॠण-वाहक गति प्रत्येक सेकेण्ड में 3×10 सेंटीमीटर होती है। यह गतिप्रमाण प्रत्यक्ष गणना करके निकाला गया है। इन गति में जो अन्तर दृष्टिगोचर होता है इससे इस काल्पनिक सिद्धान्त की पुष्टि होती है कि धन विद्युत्भार के साथ द्रव्य परमाणु सदा ही लगे रहते हैं। इनका द्रव्य परमाणु के साथ संयोग होने के कारण ही से परमाणुओं का अवयव विद्युतरगु (Ions) कहते हैं। ॠण विद्युत्भार बहुधा स्वतंत्र ही मिलते हैं। संभव है किसी समय उनके साथ भी द्रव्य परमाणुओं का भार होता हो, किन्तु ऐसी अवस्था में उन्हें (Corpuscle) रज ही कहना चाहिए। द्रव्य-परमाणु-रहित विद्युत्भार उसी ऋति पर