पृष्ठ:Gyan Kosh vol 1.pdf/२७८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सदस्य को भगा ले जाना इत्यादि अभियोग आते हैं 1 दुसरे प्रकारके अपदृज्य उन्हें कह सकते हैं जब्र स्वामित्व तथा वैसे हीं दूसरे अधिकारोंमैं दावा पड़नी है । इसमें दूसरेकौ भूमि पर विना भाडा लिये जाना, उनपर काजा कर सेना, तथा सम्पत्ति संबंधी दुसरे वैयक्तिक अधिकारी पर धका पहुँचाना द्दत्यादि अपराध सस्मिलित हँ तीसरे प्रकारका घ्रपकृत्य उसे कह सकते हैं जब्र किसीके इस्टेट ( ष्टठड्डेटादृ ) के विश्व कार्य होता है । एस्टेटका व्यापक अर्थ यहाँपर लिया गया है, जिसका अर्थ होता हैं…जीबित व्यक्तिका स्वास्थ्य. सुख तथा लाभ । इसमे कपट, पैर यश ३ भूला कावा करना तथा मानहानि सस्थिलित है 1 चौथे प्रकारकै आकृदृयमें जा अपराध आते हैं वह है शरीर. सम्पत्ति अथवा इरुटेट ( 5३७१९ ) को ३ हानि पहुंचाना- चाहे उस कार्य विठेपसे इन सबको हानि पहुँचे अच्चा दृव्रव्रसे किसी एश्ली 1 असावधानीसे उन नियमोंका उख्वान करने से जो पडोंसकै तथा अध्य लोर्गोंकै सम्बन्धमें बनाये गये हैं, शरीरहूँसम्पत्ति तथा एस्टेटकौ हानि पहुंचने ३ से म्नुग्य स्मृपकृत्य का दोषी हो जाता है। केवल ऐतिहासिक परिस्थितिकी सम्बन्ध 1 रखनेवाली परिस्थितिकी छोड़कर अन्य कार्य- पद्धबिंर्शमैं "आकृत्य' केविधानसे कहीं अधिक लाभदायक सम्पसिसम्पाधीविधानहों सकते हैं । सम्पत्ति सम्बन्धी बिघानसे आनी स्थावर सम्पत्ति फिर मिल सकती है यहि वह अन्याय से किसी दूसरेंके अधिकारमें चखी दृ गई हो । यहाँ रोमकै विडकेशियो (vindication ) के अनुसार खुसी ऐ-विरसे सम्पसिका अधिकार स्थापित नहीं हो सकना । असावधानी तथा उपाय: विधान भी नये है । सबसे नया विधान 'अनुचित प्रतियोगिता विधान' ( हानुर्थिप्लां दृणानुकुश्चरठेपंध्या) इसका महत्व बढ़ रहा है 1। .आधु- निक 'मकृत्य' तथा रोमकै 'रक्तडेलिक्यों'(5४- ८1८३5०१०) बोर कारि२ण्डसशेडिक-री (तुणाड्डड्ड १८:1९- ण्डिणा) मैं बहुत साम्य है । इससे प्रकट होता है मैं कि यदि 'अपकृहृन् विधान' उजले तिया नहीं गया है, तो उनपर अवलम्बित तो अवश्य है । है ब्रपकृत्य क्या आस्तषर्ष-अपराघ सभ्यड़धी है प्रिग्रेशांब्धटा ) विधान तथा 'अपकृत्य विधान' मैं दृ मुख्य अन्तर यह है कि "अपकृत्य’ के लिये शाक्त दु रिक वंउ नहीं मिलता. केवल आर्थिक दंड ही हिया जाता है । वह धन भी सरकारकौ न जिस कर वादी को मिलता है । भारतकै स्मृति-कारोके मृ विचारते 'मशरीगोप्राहासे ईउच्चि‘, अर्थातूब्राहाण को शारीरिक दंड नहीं देना चाहिये 1 पर थाहा- णोंकी आर्धिकर्दउ भी नही दिया जाता था स्मृतिकारोंने आर्थिकन्एध्दसे संचित् पूज्य कभी भी, 'आकृत्य बियान'कौ भाँति, वादीकोनहीं देनेकौ कहाएँ : सारांथन राज्यकी प्राप्त होता था । भारतर्में पहिले दीवानी तथा फौजदारी दो है, प्रकारके न्यायालय नहीं थे । सभी प्रकारके अभि- योग एक ही न्यायारूयकै सम्मुख आते ये । इस है प्रकार भारतये अवकृन्थधिधान' नया 'अपराध सम्बन्धी विधान (दृयाँशाटेशआँ जिमि) मैं कभी भी ऐसा अन्तर नहीं रहा, बैसा कि वर्तमान समयमे देखा जाता है । -अपकृत्य' के विचार दीवानी अदालतर्में होते हैं पृ वंमेंड़गे राज्यमैं अपकृत्यडा निधान-उपरोक्त वर्णन… से प्रगट है क्रि "अपकृन्य विधान' भारठमैं अंग्रेजी ३ क्वाबूनसे तिया गया है । पर पीनल कोउ (penal code) की भाँति यह स्वतंत्र भाँनिसे कभी 'पास’ नहीं किया गया । इसका स्वरुप दीवानी ध्या- ३ लनोंकै दिये मुये फैसर्लोसे क्रमश: निर्धारित मुआ, इसलिये इसमें कुछ इंगतैएउकै नियमोंसे मित्रता मालूम होसी है । उन्हों भेदों पा प्रकाश डालनेका ५ यहाँ प्रयत्न विध्या गया हैं ३ ऐसै कृत्य जो 'अपकृरप ’ के शोर्षकर्में भी लाये जा सल्ले हैं, उनपर यदि बादी चाहे, तो फौज- दारीमे भी मामला चलाया जा सक्ता है । क्या ऐसे कृन्यौका फैसला दानों प्रकारकै न्यायालर्योंसे हुँ करा लेटा हो उचित है । प्राजूनिर्णय ( रैखजुकिं ३ फेंटा ) अथवा अस्तर गस्यना ( मर्डर ) के तरुण- नुसार दीनों न्यायालयों के निर्णयमें समानता होनी चाहिये । यद्यपि यह प्रश्न उपस्थित किया जा सकता है किंतु प्राडूनिर्णयके तत्यकों यहाँ लागूनहाँ करना चाहिये । इससे यही तात्पर्य निकलता है फि एक हीं अपराध पर दोनों अदा- रूर्तोंमें मामला चलाया जा सकता है । भास्तसै हँगलैण्डफें नियभमैं अब भी एक विशेष अस्तरदै वहाँका अध यह नियम हों गया है किं पिना फीज- दारीमें अभियोग चलाये, केवल द्विवाणीनै अपनी क्षतिपृर्तिकेसिये. दावा नहीं किया जा . सकता। हैं पृसविथयमैं मद्रास हाईकोंर्दका या स्पष्ट निर्णय टु है कि यह कोई आवश्यक नहींहै कि वादो पहले टु फौजदारी करके ही दिवामीक्रर सकता है । प्रत्येक बिले तथा सास्कृ९के प्यायश्र्वयोंये भी यहीं नियम चला आता है । कलकत्ता हाईकौर्टने इस सभ्यन्ध मैं अपनेकुछ अलग हीनियम बना रक्खे है।