हो जाता है, तब वे पुनः नीचे गिरते हैं। मेघों के मार्ग से वृष्टि के द्वारा आकर किसी अन्न या पौधे में वे प्रविष्ट हो जाते हैं और जब मनुष्य उस अन्न या पौधे को खाता है, तब उसके शरीर में पहुँच जाते हैं। पिता उन्हें वह भौतिक सामग्री देता है, जिसमें से वे अपने कर्मों के उपयुक्त शरीर धारण कर लें। जब वह शरीर उनके लायक नहीं रह जाता तब उन्हें अपने लिये अन्य शरीर निर्माण करना पड़ता है। अब हम यहाँ बहुत से दुष्ट लोग देखते हैं, जो सभी तरह के राक्षसी कर्म करते हैं। वे फिर पशु होकर जन्म लेते हैं और यदि वे बहुत बुरे हैं, तो वे अति नीच पशु का जन्म लेते हैं या पेड़पत्थर बन जाते हैं।
देव-योनि में वे कुछ भी कम नहीं करते; केवल मनुष्य योनि ही कर्म-योनि है। कर्म का अर्थ है ऐसा काम जिसका कोई फल हो। जब मनुष्य मरता है और देव बन जाता है, तब तो उसका समय केवल सुख भोगने का ही रहता है और उस समय वह नये कर्म नहीं करता। वह तो उसके पूर्व-कृत शुभ कर्मों का पारितोषिक है; वह केवल भोग-योनि ही है। जब पुण्य कर्मों का क्षय हो जाता है, तब अवशिष्ट कर्मों का फल मिलना प्रारम्भ होता है और तब वह नीचे पृथ्वी पर उतरता है और पुनः मनुष्य बन जाता है। यदि वह बहुत अच्छे कर्म करता है और शुद्ध हो जाता है, तो वह ब्रह्मलोक को प्राप्त होकर पुनः यहाँ नहीं लौटता।
१०१