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पृष्ठ:HinduDharmaBySwamiVivekananda.djvu/११३

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हिन्दू धर्म और उसका दर्शनशास्र
 

जाति आगे बढ़ती है वैसे ही व्यक्ति को भी आगे बढ़ना पड़ता है। धार्मिक विचार के अत्युच्च शिखरों तक पहुँचने में मानव-जाति ने जिन क्रमों को ग्रहण किया वही क्रम प्रत्येक व्यक्ति को ग्रहण करना होगा। अन्तर यही हैं कि जहाँ मानव जाति को एक श्रेणी से दूसरी श्रेणी में पहुँचने के लिये लाखों वर्ष लगे हैं, वहाँ व्यक्तियाँ उससे बहुत स्वल्प अवधि में मानव जाति का सम्पूर्ण जीवन व्यतीत कर लेंगी। परन्तु हम में से प्रत्येक को इन श्रेणियों में से होकर जाना होगा। आप में से जो अद्वैतवादी हैं, वे अपने जीवन के उस काल की ओर लौट कर देखिये जब कि आप कट्टर द्वैतवादी थे। ज्योंही आप सोचते हैं आप शरीर और मन हैं, क्योंही आपको यह सम्पूर्ण स्वप्न ग्रहण करना होगा। यदि आप उसके एक अंश को ग्रहण करते हैं, तो आपको उसे सम्पूर्ण रूप से ग्रहण करना होगा। जो मनुष्य कहता है कि यहाँ यह संसार है और ईश्वर (कोई व्यक्ति) नहीं है, वह मूर्ख है; क्योंकि यदि सृष्टि है, तो उसका कारण तो रहेगा ही और वही कारण तो 'ईश्वर' कहलाता है। कारण है यह बिना जाने आप कार्य को तो नहीं पा सकते। ईश्वर तभी विलुप्त हो सकता है, जब इस संसार का लोप हो जाय। तब आप ईश्वर (परब्रह्म) हो जायेंगे और आप के लिये यह संसार तत्पश्चात् रहेगा ही नहीं। जब तक आप शरीर हैं यह स्वप्न बना हुआ है, तब तक आप अपनेको जन्म लेने वाला और मरने वाला ही पाएंगे। पर ज्योंही वह स्वप्न भंग हो जायगा, त्योंही यह स्वप्न भी

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