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पृष्ठ:HinduDharmaBySwamiVivekananda.djvu/११६

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हिन्दू धर्म
 

दार्शनिक शब्दों का उपयोग करेंगे, पर जब उनके पास मुझ जैसा साधारण मनुष्य जाकर पूछेगा, "क्या आप मुझे आध्यात्मिक बनाने की कोई बात बता सकते हैं?" तब सबसे पहले तो मुस्करा कर यह कहेंगे, "तुम हमसे बुद्धि में बहुत कम हो; तुम आध्यात्मिकता के विषय में क्या समझोगे?" ये लोग बहुत 'ऊँचे' तत्वज्ञानी हैं! ये आपको केवल दरवाजा दिखाते हैं। पुनः कई योग-पंथ हैं जो जीवन के कई स्तरों (Planes), मन की कई अवस्थाओं के सम्बन्ध में, मानसिक शाक्ति द्वारा क्या क्या किया जा सकता है आदि आदि बहुतेरी बातें बताते हैं और यदि आप साधारण मनुष्य हैं और उनसे पूछते हैं, "कोई अच्छा काम बताइये जिसे मैं कर सकूँ। मैं बहुत पूर्वापर सोचना नहीं जानता। कोई ऐसी वस्तु दे सकते हैं, जिसके मैं लायक हूँ?" वे हँसकर कहेंगे, "सुनो इस मूर्ख की बात; जानता यह कुछ नहीं; इसका जीवन व्यर्थ है।" और यही बात संसार में सर्वत्र प्रचलित है। मेरे मन में तो यही आता है कि इन सभी विभिन्न पंथों के कट्टर उपदेशकों को एकत्र करके एक कोठरी में बंद कर दूँ और उनकी सुंदर तिरस्कारयुक्त हँसी का छायाचित्र उतार लूँ!

धर्म की वर्तमान अवस्था, प्रत्यक्ष वस्तुस्थिति ऐसी ही है। मैं जिसका प्रचार करना चाहता हूँ, वह ऐसा धर्म है, जिसे सभी प्रकार के मन एक समान ग्रहण कर सकें। वह दार्शनिक हो, उतना ही भावात्मक हो, बराबर यौगिक हो और उतना ही कर्म की

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