पृष्ठ:HinduDharmaBySwamiVivekananda.djvu/११९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
हिन्दू धर्म और उसके चार योग
 

साथ सभी प्रकार के भूतप्रेत-साधनों को भी जोड़ दिया करते हैं। अतः मैं सबसे पहले यही बता देना उचित समझता हूँ कि योग से

और इन बातों से कोई सम्बन्ध नहीं है। इन योगों में से एक में भी बुद्धि का त्याग नहीं करना पड़ता, इनमें से किसी में भी आँखें बंद करके ठगाने के लिये या अपनी तर्कशक्ति को किसी भी प्रकार के पण्डे पुरोहितों को सौंप देने के लिये नहीं कहा गया है। इनमें से एक भी यह नहीं सिखाता कि तुम किसी को अलौकिक देवदूत मानकर उसके भक्त बन जाओ। इनमें से प्रत्येक योग बुद्धि के मार्ग पर दृढ़ रहने की, उसे ही दृढ़ता से ग्रहण किये रहने की शिक्षा देता है। हम प्रत्येक प्राणी में ज्ञान के तीन साधन पाते हैं। प्रथम है स्वाभाविक बुद्धि या प्रवृत्ति—जो पशुओं में सबसे अधिक बढ़ी हुई रहा करती है—यह ज्ञान का अत्यन्त निम्न श्रेणी का साधन है। ज्ञान का द्वितीय साधन क्या है? वह है तर्कशक्ति। वह मनुष्य में सबसे अधिक स्वरूप में मिलेगी। अब प्रथम तो स्वाभाविक बुद्धि अपर्याप्त साधन है। पशुओं का कार्य-क्षेत्र बहुत मर्यादित हुआ करता है और उसी मर्यादा के भीतर स्वाभाविक प्रवृत्ति काम करती है। जब हम मनुष्य की ओर आते हैं, तो हम उसे तर्कशक्ति में विकसित हुई पाते हैं। कार्य का क्षेत्र भी यहाँ विस्तृत हो गया है। तथापि तर्कशक्ति भी अत्यन्त अपर्याप्त है। तर्कशक्ति केवल थोड़ी दूर तक जाकर वहीं ठहर जाती है और आगे बढ़ नहीं सकती। यदि हम उसे ढकेलने का प्रयत्न करें तो असहाय विभ्रान्ति की स्थिति हो

११५