पृष्ठ:HinduDharmaBySwamiVivekananda.djvu/१२०

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हिन्दू धर्म
 

जाती है और तर्क स्वविरुद्ध हो जाता है, तर्कयुक्तियाँ स्वयं चक्कर खाने लगती हैं। उदाहरण के लिये हमारे अनुभव के मुख्य आधार जड़ और शक्ति को ही ले लीजिये। जड़ क्या है। वह, जिस पर शक्ति अपना कार्य करती है। और शक्ति क्या है?—जो जड़ पर कार्य करती है। देखी आपने उलझन, इसे ही तर्कशास्त्री—अन्योन्याश्रय कहते हैं। एक विचार दूसरे पर अवलम्बित है और यह दूसरा विचार पुनः प्रथम विचार पर ही अवलम्बित है। तर्कशक्ति के सामने बड़ी जबर्दस्त रुकावट खड़ी हो गई और अब वह उसके उस पार जा ही नहीं सकती; फिर भी वह उसके परे अनंत के प्रदेश में प्रवेश करने के लिये आतुर है। यह जगत्, यह विश्व जिसका अनुभव हमारी इन्द्रियाँ किया करती हैं, या जिसके विषय में हमारा मन विचार करता है, वह तो मानो उस अनंत का केवल एक अंश मात्र है, जो बोधगम्य स्वरूप में प्रकट हुआ है; और उस संकीर्ण मर्यादा के भीतर ही, बोध के इस सीमाबद्ध क्षेत्र में ही हमारी तर्कशक्ति या बुद्धि काम करती है, उसके परे कदापि नहीं। अतः हमें उसके परे ले जाने के लिये कोई दूसरा साधन होना चाहिये और उस साधन को अपरोक्ष अनुभव (Intuition) कहते हैं। इस प्रकार सहज प्रवृत्ति, तर्क और अपरोक्ष अनुभव ये तीन ही ज्ञान के साधन हैं। स्वाभाविक प्रवृत्ति तो पशुओं का साधन है, तर्कशक्ति मनुष्य का और अपरोक्ष अनुभव देव-मानवों का। पर सभी मनुष्यों में अधिक या अल्प विकसित अवस्था में इन तीनों ज्ञानसाधनों के अंकुर पाये ही जाते हैं। इन मानसिक साधनों को सुविकसित होने के लिये इनके अंकुर तो वहाँ

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