उसकी दृष्टि में उस ईश्वर के वर्णन करने के लिये बिलकुल अपर्याप्त है। उसके लिये तो ईश्वर उसके जीवन का जीवन है, उसकी आत्मा की आत्मा है। ईश्वर उसकी स्वयं आत्मा है। ऐसी कोई अन्य वस्तु शेष ही नहीं रह जाती जो ईश्वर न हो। उसके व्यक्तित्व के सभी मरणशील अंग दर्शनशास्त्र के प्रबल आघातों से चूर्ण होकर उड़ जाते हैं। और अन्त में सचमुच जो शेष रह जाता है वह स्वयं ईश्वर है।
उसी एक वृक्ष पर दो पक्षी हैं[१]—एक चोटी पर और दूसरा नीचे। चोटी पर रहने वाला पक्षी शान्त, मौन और श्री सम्पन्न, अपने ही ऐश्वर्य में मग्न है। नीचे की शाखाओं पर रहनेवाला पक्षी, बारी बारी से मधुर और कटु फल खाता हुआ, शाखा से शाखा पर फुदकता हुआ बारी बारी से सुखी और दुःखी हो रहा है। कुछ काल के पश्चात् नीचे वाला पक्षी अत्यन्त कटु फल खाकर त्रस्त हो जाता है और ऊपर की ओर वहाँ उस स्वर्ण पंख वाले अद्भुत पक्षी को देखता है जो न तो मधुर फल खाता है, न कडुआ ही, न मुखी है न दुःखी,—वह शान्त, अपने आप में ही मग्न है और अपनी आत्मा के परे कुछ नहीं देखता है। नीचे वाला पक्षी उसी स्थिति की
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द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वादु अत्ति अनश्नन्नन्योऽभिचाकशीति॥
समाने वृक्षे पुरुषों निमग्नोऽनीशया शोचति मुह्यमानः।
जुष्टं यदा पश्यत्यन्यमीशंमस्य महिमानमिति वीतशोकः॥
—मुण्डकोपनिषद्, ३।१।१-२
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